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अभिमत
अहिंसा सामाजिक जीवन का केवल एक नैतिक भाव ही नहीं, अपितु एक मौलिक सिद्धान्त है, एक जीवन-दर्शन है। अतएव उसका मल्यांकन धर्म-परंपराओं के चन्द स्थूल आचार-व्यवहारों पर से निर्धारित नहीं किया जा सकता, इसके लिए चिन्तन की काफी गहराइयों में उतरना होता है। यही कारण है कि भारतीय तत्त्व-चिन्तन के चिदाकाश में अहिंसा की विवेचना के नये-नये क्षितिज खुलते रहे हैं, और इस प्रकार अहिंसा के आयाम विस्तृत एवं विस्तृततर होते गए हैं।
___ अहिंसा जैन दर्शन का तो प्राणतत्त्व ही है। जैन विचार एवं आचार का प्रत्येक दृष्टिबिन्दु घूम फिर कर अन्ततः अहिंसा पर ही आकर केन्द्रित होता है। एक तरह से जैन दर्शन और अहिसा दर्शन एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। जैन चिन्तकों के द्वारा अतीत में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को संरचनाएं एक मात्र अहिंसा पर ही हुई हैं। अतीत ही नहीं, वर्तमान में भी बहुत कुछ लिखा जा रहा है। जीवन-व्यवहार के हर अंग-प्रत्यंग पर अहिंसा का क्या प्रभाव पड़ता है, अहिंसा का क्षेत्र कितना व्यापक एवं विस्तृत है, और वह किस तरह जीवन की गहराई में उतारी जा सकती है, इसकी लोकग्राह्य विवेचना अनेक ग्रन्थों में हुई है, जिस पर आज का बौद्धिक जगत् आश्चर्य एवं सात्त्विक आनन्द की अनुभूति करता है। डा. बशिष्ठ नारायण सिन्हा की जेन अहिंसा से सम्बन्धित प्रस्तुत शोध-रचना भी इसी शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है जिसपर हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने उन्हें पी-एच० डी० की उपाधि से अलंकृत किया है।
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