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________________ २७० जैन धर्म में अहिंसा होनी चाहिए, जैसी एक माँ के दिल में अपने एकलौते पुत्र के प्रति होती है। धम्मपद में कहा गया है कि जो जीव अन्य जीवों को मारकर स्वयं सुख प्राप्त करना चाहता है, वह कभी भी सुख नहीं पाता और इसके विपरीत जो व्यक्ति अहिंसापूर्ण संयमित जीवन व्यतीत करता है, वह कभी दुःख नहीं प्राप्त करता है तथा अच्युतपद की प्राप्ति करता है । विनयपिटक में भिक्षु भिक्षुणियों के आचार पर प्रकाश डालते हुए उन्हें जीवहिंसा से अपने को बचाने का उपदेश दिया गया है । जो भिक्षु मनुष्य अथवा अन्य जीवों को जान से मारता है या दूसरों से मरवाता है या मारनेवाले की बड़ाई करता है अर्थात् हिंसा का अनुमोदन करता है, वह पाराजिक समझा जाता है । वह साधु-समाज में रहने के लायक नहीं होता । यदि भिक्षु जमीन खोदता है या खुदवाता है, वृक्ष काटता है अथवा कटवाता है तो इन सभी हिंसापूर्ण कार्यों के लिए उसे प्रायश्चित्त करना चाहिए। क्योंकि ये सभी कार्य दोषपूर्ण हैं । उसे एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से बचने के लिए ताड़पत्र आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिये । चमड़े का प्रयोग भी साधु के लिए वर्जित है । परन्तु इन सभी निषेधों के कुछ अपवाद भी बताये गये हैं, जैसे भिक्षु बीमारो को अवस्था में दवास्वरूप मांस, चर्बी तथा खून का उपयोग कर सकता है । वह मांस या मछली ग्रहण कर सकता है, यदि गृहस्थ अपने निमित्त तैयार किये हुए मांस अथवा मछली में से उसे भिक्षास्वरूप देता है । किन्तु वैसा मांस या वैसी मछली उसे कभी भो नहीं खानी चाहिए, जो उसी के निमित्त मारो गई हो । विशुद्विनार्ग में चेतनाशील तथा चैतसिकशील का संबंध अहिंसा के साथ बताया गया है । इसके अलावा इसमें चार भावनाओं - मैत्री, करुणा, मुद्रिता एवं उपेक्षा को विवेचित करते हुए, क्षमा का महत्त्व प्रदर्शित किया गया है । क्षमा पर ही मैत्रीभावना आधारित है | अतः मैत्रो भावना को दृढ़ करने के लिए क्षमाभाव को अपनाना चाहिए । बोधिचर्यावतार में परहित भावना तथा मैत्रीभावना को श्रेष्ठ दिखाते हुए कहा गया है कि द्वेष के समान कोई पाप नहीं है और क्षमा के समान कोई तप नहीं है । सिक्ख - परम्परा में हिंसा का विरोध करते हुए यह कहा गया है कि किसी प्राणी की हत्या करना योग ( यज्ञ ) नहीं कहला सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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