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________________ २३० जैनधर्म में अहिंसा तृतीय भावना-वचन की अपापकता-वाणी की विशुद्धता। इसमें यह बताया गया है कि निर्ग्रन्थ पापमय, सावद्य यानी जीवों के उपघातक तथा विनाशक वचनों का प्रयोग न करे, क्योंकि ऐसे सदोष भाषण से जोवहिंसा होती है।' चतर्थ भावना-भाण्डोपकरण विषयक समिति । साधु भाण्डोपकरण को ग्रहण करे या कहीं रखे तो उसे पूर्ण यत्नपूर्वक ग्रहण करना या रखना चाहिये, क्योंकि ऐसा न करने से जीवों की हिंसा होती है। पंचम भावना--भक्त-पान विषयक आलोकिकता। विवेकपूर्वक देखकर भोजन या जल ग्रहण करना ही साधु के लिये उचित है वरना खाते या पीते समय वह अनेक प्राणियों की हिंसा करता है। अत: सदा देखकर आहार-पान ग्रहण करना चाहिये। ___ मृषावादविरमण की भावनाएँ - सत्यव्रत का अहिंसा से घनिष्ठ सम्बन्ध है । इसकी रक्षा के लिये पाँच भावनाएं बताई गई हैं - १. वाणोविवेक, २. क्रोवत्याग, ३ लोभ-त्याग, ४. भय-त्याग तथा ५. हास्य-त्याग । क्रोध, लोभ आदि हिंसा के कारण हैं, अत: इनका सर्वथा त्याग करना ही साधु का धर्म समझा जाता है।४। अदत्तादानविरमण की पच भावनाएं हैं : १. सोच-विचारकर वस्तु की याचना करना, २. आचार्य की अनुमति से भोजन करना, ३. परिमित वस्त स्वीकार करना, ४. बार-बार वस्तुओं को मर्यादित करना तथा ५. सामिक से परिमित पदार्थों को मागना। ऐसा करने से हिंसा को त्यागने एवं अहिंसा को अपनाने में सहायता मिलती है। यदि कोई बिना पूछे ही किसी की वस्तु ले लेता है तो उस १. आचारांग सूत्र, द्वि० श्रु०, पंचदश अध्ययन, सूत्र ३, पृ० १४२३. २. वही, सूत्र ४, पृ० १४२५. ३. आलोइयपाणभोयणभोई से निग्गंथे नो अणालोइयपाणभोयणभोई, केवली बूया.. पंचमा भावना ॥ ५ ॥ -वही, पृ० १४२६. ४. वही, पृष्ट १४३०-१४३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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