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जैनेतर परम्परामों में अहिंसा प्रकृति ही थी। वह प्रकृति के विभिन्न रूपों या विभिन्न अंगों की पूजा किया करता था जिससे कि वह कष्ट से मुक्त हो पाता और आनन्द की प्राप्ति करता। अत: उसके पूज्य देवताओं की संख्या बहुत ही अधिक थी। निरुक्तिकार यास्क के अनुसार स्थान-विभाग की दृष्टि से देवताओं की तीन श्रेणियाँ हैं-पृथ्वीस्थान, अन्तरिक्षस्थान तथा स्थान । पृथ्वीस्थान-देवताओं में अग्नि का, अन्तरिक्षस्थान देवताओं में इन्द्र का तथा आकाशस्थान-देवताओं में सूर्य, सविता, विष्ण आदि सौर देवताओं का स्थान सबसे ऊँचा एवं महत्त्वपूर्ण है।' दार्शनिकों ने इस बहुदेवता-पूजन को प्राकृतिक बहुदेवतावाद (Naturalistic Pluralism) नाम दिया है जो धीरेधीरे आवसरिक एकदेवतावाद (Henotheism), एकदेवतावाद (Monotheism) तथा ब्रह्मवाद (Monism) के रूप लेता है।
स्वाभाविक सरलता एवं निष्कपटता के कारण वेदकालीन मानव के सामने न कोई पेचीदी समस्या थी और न तो उसके समाधान के लिये कोई ऊँचा सिद्धान्त ही । जब वह किसी प्रकार का वैयक्तिक या सामाजिक, शारीरिक या मानसिक तथा मानुषिक या अमानुषिक कष्ट पाता था तो अपने देवताओं की आराधना करता था, उसके निमित्त तरह-तरह की आहुतियाँ देता था और कष्ट निवारण के लिये प्रार्थना करता था। अतः वेदों में प्रार्थना एवं प्रशंसा की भरमार है। उन प्रार्थनाओं में “अहिंसन्ती" "हिंस्यमान", "हिंसन्त", "अहिंसन्तीरनामया",५ "हिंसन्तौ" १. भारतीय दर्शन-पं० बलदेव उपाध्याय, पृष्ठ ५४-५५. २. अस्मे ता त इन्द्र सन्तु सत्याहिंसन्तीरूपस्पृशः ।
विद्याम यासां भुजो धेनूनां न वज्रिवः ।। ऋ० वे० १०. १२. १३. ३. प्रादिन्मातराविशद् यास्वा शुचिरहिंस्यमान उविया वि वावृधे । अनु यत् पूर्वा अरुहत् सनाजुवो नि नव्यसीष्ववरासु धावते ।
ऋ० वे० १.१४१.५. ४. प्रयच्छ पशु त्वरया हरौषमहिंसन्त पौषधीन्तुि पर्वन् । यासां सोमः परि राज्यं बभूवामन्युता नो वीरुधो भवन्तु ।
म. वे० १२.३.३१. ५. याः सीमानं विरुजन्ति मूर्धानं प्रत्यर्षणीः ।
अहिंसन्तीरनामया निद्रवन्तु बहिबिलम् ।। प्र०वे० ६. ८. १३. ६. तर्द है पतंग है जभ्य हा उपक्कस । ब्रह्मेवासंस्थितं हविरनदन्त इमान् __यवानहिंसन्तो अपदित ।। अ० वे० ६.५०.२.
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