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________________ जैनाचार और अहिंसा २१७ आदि परिग्रह को सीमित करके उस सीमा से अधिक प्राप्त करने का त्याग ही परिमित परिग्रह है। मुनियों के लिये इन वस्तुओं का पूर्णतः त्याग करना कहा गया है, लेकिन श्रावकों के लिये कहा गया है कि वे इन वस्तुओं को परिमित करलें, क्योंकि परिवार में रहते हुए इन चीजों का पूर्ण त्याग शक्य नहीं है। गुणवत: गुणव्रत तीन हैं : दिग्वत, भोगोपभोगव्रत तथा अनर्थदण्डवत । चूंकि ये मूल गुणों को वृद्धि करते हैं, इन्हें गुणव्रत कहते हैं । दिग्वत-मरण पर्यन्त के लिये यह संकल्प करना कि एक मर्यादित क्षेत्र के बाहर नहीं जाऊंगा, दिग्वत या दिशापरिमाण व्रत कहलाता है। इसमें गृहस्थ यह निश्चय करता है कि खेती या अन्य व्यवसाय के लिये वह ऊपर, नीचे तथा चारों दिशाओं में जाने का एक खास मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। कोई भी व्यक्ति जितनी अधिक दूरी तय करेगा या जितने ही विस्तृत क्षेत्र से उसका सम्पर्क होगा, उतने ही अधिक जीवों से, भले ही छोटे हों या बड़े, उसका सम्पर्क होगा और ज्यादा हिंसा की संभावना रहेगी। इसके अलावा ज्यादा वस्तुओं को देखकर उसके मन में अधिक प्रलोभन होगा, अधिक विकार पैदा होगा जो उसे हिंसा को ओर बढ़ने को प्रेरित करेंगे। १. धन-धान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाण - नामाऽपि ॥१५॥६॥ समीचीन धर्मशास्त्र. २. दिग्वतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । अनुवृहणाद्गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्याः ॥१॥६७॥ समीचीन धर्मशास्त्र. ३. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपाप-विनिवृत्यै ॥२॥८॥ समीचीन धमशास्त्र. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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