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________________ चतुर्थ अध्याय जैनाचार और अहिंसा मानव जीवन के दो आधार-स्तम्भ हैं-आचार और विचार । आचार जीवन का व्यावहारिक पक्ष है तो विचार सैद्धान्तिक । आदमी जैसा करता है, वैसा सोचता है और जैसा सोचता है, वैसा ही करता भी है । आचार और विचार या व्यवहार और सिद्धान्त एक-दूसरे पर आधारित हैं। वह आचार जो किसी विचार को साया में नहीं है, उस कंकाल के समान है, जिस पर न मांस हो और न त्वचा। और वह विचार जो आचरित न हो, उस खोखले शरीर के समान है, जो हड्डीविहीन हो । अत: दोनों ही की आवश्यकता को समझते हुए सभी धर्मप्रणेताओं और दार्शनिकों ने विभिन्न धार्मिक सिद्धान्तों के साथ-साथ आचार पर भी प्रकाश डाला है; यानी यह बताया है कि जो धार्मिक सिद्धान्तों को मानता है, उस व्यक्ति का आचार कैसा होना चाहिये। अत: विभिन्न प्रणेताओं ने विभिन्न धार्मिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है और आचार के भी विभिन्न नियम निर्धारित किये हैं। जैन धर्म के भी अनेकान्तवाद-स्याद्वाद आदि तात्त्विक या सैद्धान्तिकरूप हैं तथा कर्मवाद आदि व्यावहारिक रूप । जैनाचार के दो विभाग किये जाते हैं-श्रावकाचार तथा श्रमणाचार । श्रावक के लिये उपदेशित आचार को श्रावकाचार तथा श्रमण के लिये उपदेशित आचार को श्रमणाचार कहते हैं। . गृहस्थ जो अपने गुरुजनों या धमयों से निग्रंन्ध-वचनों का श्रवण • करता है, उसे श्रावक या श्राद को संज्ञा दी जाती है। वह श्रमजोपासक भी कहा जाता है, कारण, वह श्रमणों की उपासना करता है। चूकि वह अणुव्रत या लघुत्रत का पालन करता है, उसे अणुव्रती, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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