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जैन दृष्टि से अहिंसा
२०७ समक्ष आकर आचार्य का घात करना चाहता है तो उसके साथ क्या व्यवहार होना चाहिये। इसके लिये निशीथभाष्य या निशीथचूर्णि में कहा गया है कि यदि कोई शत्रु आचार्य का वध या साध्वी के साथ बलात्कार करना चाहता है तो उसकी हत्या करके आचार्य आदि की रक्षा करनी चाहिए और ऐसी हिंसा करने वाले को विशुद्ध माना गया। इसका ज्वलन्त उदाहरण हे कोंकणदेशीय साधु के द्वारा रात्रि में तीन सिंहों को मारकर संघ की रक्षा करना।
इस प्रकार स्वतः अपनी रक्षा के हेतु नहीं, किन्तु संघादि की रक्षा के लिए जीवों की हत्या करनेवाले को भी हिंसा के दोष से दूषित नहीं, बल्कि विशद्ध चरित्रवाला समझा जाने लगा। अर्थात् हिंसा से अहिंसा की रक्षा का भाव लोगों के मन में आ गया। एक बार ऐसा हुआ कि किसी राजा ने जैन साधुओं को आदेश दिया कि वे ब्राह्मणों को उनके पैर छूकर प्रणाम करें। अन्यथा सभी जैन साधुओं को देश-निकाला की सजा मिलेगी। इस समस्या का समाधान करने के लिए आचार्य ने अपने शिष्यों से पूछा कि क्या कोई ऐसा भी साधु है, जो सावध या निरवद्य किसी भी प्रकार से इस कष्ट का निवारण करे । यह सुनकर एक जैन साधु संघ की रक्षा के लिए तैयार हआ। उसने राजा से सभी ब्राह्मणों को एकत्र करवाने को कहा। जब सभी ब्राह्मण एकत्रित हुए तो उसने कणेरलता को अभिमंत्रित करके सभी ब्राह्मणों के शिर काट डाले। इस प्रकार उसने सघ की रक्षा की।
आहार ग्रहण करने के नियमों में भी बहुत से अपवाद बनाये गये। जैसे चूर्णिकार ने कहा कि बाल, वृद्ध, आचार्य तथा दुर्बल संयमी रोग आदि में विगय यानी तेल, घृत, नवनीत, दधि, फाणिय-गुड़, मद्य, दूध आदि का सेवन कर सकते हैं। किन्तु इन्हें ग्रहण करते समय साधु को
१ निशीथचूर्णि, गा० २८६. २ " गा० २८६, पृ० १०१, भाग १. ३ " गा० ४८७. ४ " गा० ३१६८,
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