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जैन दृष्टि से अहिंसा
२०५ भोगों को निवर्तेगा, वह आभ्यन्तर कषाय, बाह्य कुटुम्बादिक के संयोग का त्याग करेगा और जो आभ्यन्तर तथा बाह्य संयोगों का त्याग करेगा, वही द्रव्य एवं भाव से मुण्डित होकर अनगार बन पायेगा। किन्तु साधना में शरीर की भी आवश्यकता होती है । ऐसा समझकर शरीर की रक्षा उस हद तक सही समझी जाने लगी, जिस हद तक शरीर साधना का साधन बन पाता है, यदि वह बाधास्वरूप बन जाता है तो ऐसे शरीर की रक्षा नहीं होनी चाहिए। अतएव संयमी या साधक को आहार का प्रबन्ध करने की छूट दी गयी, किन्तु एक गृहस्थ की रीति से नहीं, बल्कि मधुकरी वृत्ति से। इसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि साधु अपने लिये किसी भी प्रकार का भोजन तैयार न करे और दूसरों के द्वारा भी दी गई उन वस्तुओं को ग्रहण न करे, जो उसके निमित्त ही बनी हों । आहार में वे वस्तुएँ वजित की गई. जो सजीव हों या सजीव से सम्बन्धित हों यानी सजीव से लगी हों। इतना ही नहीं, भिक्षा मांगने के समय दाता या याचक किसी से भी किसी प्राणी की हिसा हो तो वैसी हालत में भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। इसके अलावा दाता से भिक्षु के निमित्त पहले या पीछे किसी प्रकार की हिंसा होने की संभावना हो तो साधक को भिक्षा ग्रहण नहीं करना चाहिये। इस संबंध में अनेक नियम बने। और उन सभी नियमों की धमनियों में अहिंसा पालन का रक्त ही संचारित हो रहा था। आहारादि सम्बन्धी नियमों के विवेचन आचारांग, दशवेकालिक, बृहत्कल्प आदि ग्रन्थों में हुए हैं
१ जया निम्बिदए भोए, जे दिव्वे जेय माणुसे ।
तया ज चयह संजोगं, सन्भितरं च बाहिरं ॥ १७ ॥ जया चयह संजोगं, सन्भितरं च बाहिरं ।। तया मुण्डे भवित्ताणं, पव्वहए अणगारियं ॥ १८ ॥
-दश, अध्ययन ४. २ दशवैकालिक, अध्ययन ५, सूत्र ६१-६२. ३ " " १, सूत्र १-५.
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