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________________ जैन दृष्टि से अहिंसा १९६ सूत्रकृतांग में एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण से मुनि आर्द्रकुमार की भेंट तथा वार्तालाप की चर्चा मिलती है ।' ब्राह्मण, वैदिक कर्मकाण्ड की बड़ाई तथा बौद्धादि धर्मों की शिकायत करता हुआ आर्द्रकुमार को यह सलाह देता है कि वे ब्राह्मण धर्म को ही स्वीकार कर लें। वह कहता है कि वेदानुसार यजन - याजन, अध्ययन-अध्यापन आदि छः प्रकार के कर्मों को करनेवाले दो हजार ब्राह्मणों को रोज भोजन देने से पुण्य की वृद्धि होती है और स्वर्गलोक में देवत्व प्राप्त होता है । किन्तु ब्राह्मण को उत्तर देते हुए आर्द्रकुमार कहते हैं कि मांस को खोज में विड़ाल की तरह घूमने वाले, उदर पूर्ति के लिये क्षत्रियादि के यहाँ अधमचाकरी करने वाले दो हजार क्या एक ब्राह्मण को भी नित्य भोजन कराने से, उसी मांसहारी ब्राह्मण के साथ भोजन करानेवाला वेदनायुक्त नरक में जाता है। जो दया प्रधान धर्म की निन्दा या विरोध करता है तथा हिंसामय धर्म की प्रशंसा करता है, ऐसे एक ब्राह्मण को भोजन कराना ही नरक का बहुत बड़ा साधन बन जाता है। ___ यहाँ पर भ्रमविध्वंसनकार ने कहा है कि यदि असंयति को भोजन आदि दान देने से पुण्य होता तो मुनि आर्द्रकुमार कर्मकाण्डी ब्राह्मण को क्यों कहते कि ब्राह्मण को भोजन कराने से नरक होता है । लेकिन इसके विरोध में जवाहिरलाल जी कहते हैं कि आर्दकुमार ने दयाधर्म की निन्दा करनेवाले तथा हिंसामय धर्म की प्रशंसा करने वाले नीचवृत्ति ब्राह्मणों को पूज्यबुद्धि से भोजन कराने का निषेध किया, क्योंकि १. सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए माहणाणं । ते पुन्नखन्धे सुमहऽज्जणित्ता, भवंति देवा इति वेयवाओ । सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णि यए कुलालयाणं । से गच्छति लोलुवसंप गाढ़े तिव्वाभिता व गरगाभिसेवी । दयावरं धम्म दुगुच्छमाणा, वहावहं धम्म पसंसमाणा | एगंपि जे भोययती असीलं, णिवो णिसंजाति कुओ सरेहिं । -सूत्रकृतांग, थ तस्कन्ध २, अ० ६, गाथा ४३-४५. २. भ्रमविध्वंसनम् , दानाधिकार, बोल ९, पृ० ६६-६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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