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________________ जैन हटि से अहिंसा १६१ कुछ दे देता है ताकि समाज के लोग उसे कंजूस न कहें या कठोर दिलवाला न कहें । ६. गौरवदान करना गौरवदान कहलाता है । ७. अधर्मदान पुष्टि होती है, उसे में रत रहनेवालों को - - यश प्राप्ति के लिए गर्वपूर्वक धन का त्याग - ८. धर्मंदान धर्म के लिए दिया गया दान धर्मदान कहलाता है । समभावी मुनियों को, जिनके लिये सोना और राख में कोई अन्तर नहीं होता, दान देना धर्मदान की श्रेणी में आता है । जिस दान से धर्म की पुष्टि न होकर अधर्म की अधर्मंदान कहते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी आदि कुछ देना अधर्मंदान है। Jain Education International ९. करिष्यतिदान किया गया दान करिष्यतिदान कहलाता है | भविष्य में प्रत्युपकार पाने के उद्देश्य से - १०. कृतदान पहले के किए गये उपकार से उऋण होने के लिए जो दान दिया जाता है, वह कृतदान के नाम से संबोधित होता है ।" १. कृपणेऽनाथदरिद्रे व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपार्थात् अनुकम्पा तद्भवेद्दानम् ॥ अभ्युदये व्यसने वा यत् किंचिद्दीयते सहायतार्थम् । तत्संग्रहतोऽभिमतं मुनिभिर्दानं न मोक्षाय || राजारक्षपुरोहित मधुमुखमाविल्लदण्डपाशिषु च । यद्दीयते भयार्यात्तदुभयदानं बुधै । अभ्यर्थितः परेण तु यद्दान जनसमूहगतः । परचित्तरक्षणार्थं लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ॥ नटनर्त्तमुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धिबन्धु मित्रेभ्यः । यद्दीयते यशोऽथं गर्वेण तु तद्भवेद्दानम् ॥ हिंसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसवतेभ्यः । यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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