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________________ जैन दृष्टि से अहिंसा १७७ २६. विसुद्धी -- विशुद्धि : पाप का क्षय करके जीव को विशुद्ध या निर्मल ( बिना किसी मल के ) बना देती है । इस कार्यदक्षता के कारण यह विशुद्धि नाम से पुकारी जाती है | २७. लद्धी - लब्धि : इसके प्रभाव से ही केवलज्ञान एवं केवलदर्शन आदि लब्धियाँ होती हैं, इसलिए इसे लब्धि कहते हैं । २८. विसिदिट्ठी - विशिष्टदृष्टि : अहिंसा प्रधान दर्शन है, इस कारण इसे विशिष्ट दृष्टि कहा जाता है । २९. कल्लाण—कल्याण : यह कल्याण यानी आरोग्यता तथा मोक्ष प्रदान करने के कारण कल्याण कही जाती है । ३०. मंगल - यह पापों का उपशमन करती है, इसलिए मंगल के नाम से भी सम्बोधित होती है । ३१. पमोअ - प्रमोद - हर्ष : हर्षोत्पादक होने के कारण अहिंसा प्रमोद कहलाती है । ३२. विभूई - विभूति : सभी प्रकार की ऋद्धियाँ देने के कारण यह विभूति कही जाती है । ३३. रक्खा - रक्षा : इससे जीवों की रक्षा होती है, अतः यह रक्षा कही जाती है । ३४. सिद्धवास – सिद्धावास : इसके अभ्यास से जोव सिद्धों के आवास या निवास में सिद्धगति नामक स्थान पा जाता है ( घासी कल्याणं, २६. पापक्षयोपायत्वेन जीव निर्मलतास्वरूपत्वात् २७ लब्धिः केवलज्ञानादिलब्धिनिमित्तत्वात्, २८. प्रधानदर्शनं स्याद्वादमित्यर्थः अन्य दर्शनस्याऽप्राधान्यमेव यदुक्तं, २९. आरोग्यं तत्प्रापकत्वा३०. दुरितापशमकत्वात्, ३१. हर्षोत्पादकत्वात्, ३२. सर्वऋद्धिसंपन्निमित्तत्वात्, ३३. जीवरक्षणस्वभावत्वात्, ३४. साद्यपर्यवसितमोक्षगति निवासहेतुत्वात् ( प्रश्नव्याकरण सूत्र - अ० भा० श्वे० स्था० जैन शास्त्रोद्धार समिति द्वारा प्रकाशित, राजकोट, १९६२, पृष्ठ ५६५-६६; प्रश्नव्याकरण सूत्र - अनु० घेवरचन्द्र बांठिया, पृ० १५९ ; मोक्षनिबन्धनत्वात् - प्रश्नव्याकरणसूत्र - ज्ञानविमलसूरि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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