SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ जैन धर्म में अहिंसा के कारण स्त्री-पुरुष के भाव प्राणों का घात और मैथन के कारण शारीरिक शिथिलता होने से द्रव्य प्राणों का घात होता है। मैथन के कारण योनि में अनेकों जीव उस प्रकार मरते हैं, जिस प्रकार तिलों की बनी हई नली में तपा हआ लोहा डालने से तिल जलकर विनष्ट हो जाते हैं । रागादि की तीव्रता या अधिकता के कारण हिंसा होती है और काम-तीव्रता के बिना काम-क्रीड़ा होती नहीं, अतः काम-क्रीड़ा हिंसा है।' कुछ विरोधी मतवालों का कथन है कि चूंकि मात्र पीड़ा देना ही हिंसा है, मैथुन को हिंसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि यह क्रिया अन्य जीव को बिना कष्ट पहुँचाये भी की जाती है । जैसे ___ "पिंग नामक पक्षिणी विना हिलाये जलपान करती है इसीलिये किसी जीव को उसके जलपान से दुःख नहीं होता - और उसकी तृप्ति भी हो जाती है, इसी तरह समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करने से किसी जीव को दुःख नहीं होता है और अपनी तृप्ति भी हो जाती है, इसलिये इस कार्य में दोष कहाँ से हो सकता है ?"२ ऐसे विचार वालों को जैनमतानुसार पार्श्वस्थ, मिथ्या. दृष्टि एवं अनार्य कहा गया है, क्योंकि मात्र पीड़ा देना ही दोष नहीं होता बल्कि बहुत से नैतिक दोष हैं जिनमें हिंसा एक है । परिग्रह-"मोह के उदय से भावों का ममत्वरूप परिणमन होना मूर्छा है और मूर्छा ही परिग्रह है। १. यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥१०७।। हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायत विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिस्चन्ते मैथुने तद्वत् ॥१०८॥ यदपि क्रियते किंचिन्मदनोद्रे कादनङ्गरमणादि। तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितंत्रत्वात् ।।१०६॥-पुरुषार्थसिद्धयुपाय । २. सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ० ३, उद्देश्य ४, सूत्र १२. ३. या मूर्छानामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्यषः । मोहोदयादुदोर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ।।१११॥-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy