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जैन धर्म में अहिंसा
"पृथ्वीकाय के आरंभ-समारंभ में लगे हुए व्यक्ति को यह सावद्य प्रवत्ति अनागत काल में अहितकर तथा बोध की अवरोधक होती है । परन्तु जो भव्य जीव-पृथ्वीकाय का आरंभ करना पाप है, ऐसा भगवान् या अनगारों से सुनकर, सम्यग्ज्ञान, दर्शन आदि के द्वारा भली-भाँति जान लेता है, उसको यह ज्ञान हो जाता है कि पृथ्वीकाय का आरंभ भविष्य में अहित और अबोधि के लाभ का कारण है। अतः ऐसे किन्हीं ज्ञानी पुरुषों को यह परिज्ञात हो जाता है कि पृथ्वीकाय का समारंभ ग्रन्थि है अर्थात् अष्ट कर्मों की गाँठ है, मोहरूप है, मृत्यु का कारण है और नरक का कारण है"।'
इसी तरह अप्काय, अग्निकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय तथा वायुकाय की हिंसा के फल होते हैं।
सूत्रकृतांग में भी कहा है कि जो व्यक्ति विभिन्न आरंभों में रत रहता है, जीवों को दंड देता है, हिंसा करता है वह अनेक वर्षों के लिए नरक आदि पापलोकों में स्थान पाता है, यदि बचपन की तपस्या से वह देवता का स्थान पा जाता है तो वहाँ भी वह नीच तथा असुरसंज्ञक देवता ही होता है ।
१. तं से महिपाए, तं से प्रबोहिए, से तं संबुज्झमाणे आयाणियं समुट्ठाय
सोच्चा खलु भगवो प्रणगाराणं इहमेगेसि णायं भवति, एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए...||१७॥
भाचारांग सूत्र-प्रात्मारामजी, प्र० श्रुतस्कंध, प्रथम प्र०, उद्देशक २. २. पाचारांगसूत्र, प्र० श्रु०, प्र० प्र०, उ० ३, सूत्र २४; उ० ४, सूत्र ३७;
उ० ५, सूत्र ४६; उ० ६, सूत्र ५३ तथा उ० ७, सूत्र ५६. ३. जे इह प्रारंभनिस्सिया प्रात्तदंडा एगंतलूसगा।
गंता ते पावलोगयं चिररायं प्रासुरियं दिसं ॥६॥ प्र. श्रु०, प० २, उ० ३; तथा प्र० ५, उ० १, सूत्र ३-५; अध्ययन ७, सूत्र ३, १० भी देखें।
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