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जैन धर्म में अहिंसा त्याग करता है, भूत और भविष्य के त्रसकाय प्राणियों की हिंसा का नहीं।
प्रत्याख्यान करनेवाला अभियोग यानी राजा की आज्ञा, गण की आज्ञा, गणतन्त्रात्मक राज्य की आज्ञा, बलवान की आज्ञा, माता-पिता आदि की आज्ञा तथा आजीविका के भय को ध्यान में रखते हए हिंसा करता है, यानी इन आज्ञाओं की वजह से यदि उसे हिंसा करनी पड़ती है तो उसका प्रत्याख्यान भंग नहीं होता। इस संबंध में दूसरी बात है "गाथापतिचोर-ग्रहणविमोक्षण न्याय" जो इस प्रकार है-किसी गहस्थ के छः बेटे थे और किसी जुर्म के कारण छहों को राजा की ओर से मृत्यु दण्ड मिला । तब वह गृहस्थ राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगा। उसने अपने वंश की रक्षा के लिए सिर्फ एक पुत्र को मारने के लिए तथा अन्य पाँच को छोड़ देने के लिए निवेदन किया। किन्तु राजा ने उसकी बात न मानी । तब उसने क्रम से चार, तीन, दो और एक को छोड़ देने के लिए कहा। अन्त में राजा ने उसके पाँच पुत्रों को तो फांसी की सजा दे ही दी लेकिन सिर्फ एक को छोड़ दिया। यद्यपि सजा के भागी सभी थे और फांसी सभी को पड़नी चाहिये थी। किन्तु गृहस्थ की वंशवृद्धि के लिए कम से कम एक पुत्र का जीवित रहना अत्यन्त आवश्यक था । ठीक उसी प्रकार षटकाय की हिंसा से बचना उचित है, किन्तु यदि ऐसा न हो सके तो कम से कम स्थल प्राणातिपात से या त्रसकाय की हिंसा से तो बचना ही चाहिये ।
उपासकदशांग में आनन्द गाथापति के द्वारा अहिंसावत धारण करने की चर्चा मिलती है। वे भगवान महावीर के समक्ष कहते हैं कि ब्रतों में श्रेष्ठ अहिंसावत के रूप में स्थल-प्राणातिपात को दो करण तथा तीन योग से करने का त्याग करता हूँ।' यहाँ भी पहले स्थूलकाय यानी त्रसकाय की हिंसा का त्याग किया गया है । १. तए णं से पाणंदे गाहावई समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए
तप्पढमयाए थूलगं पारणाइवायं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करोमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा ॥१३॥
--उपासकदशा 1. अध्ययन।
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