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________________ १४२ जैन धर्म में अहिंसा यत्खलुकषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।। इसे श्री नाथूराम प्रेमी निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट करते हैं : "जिस पुरुष के मन में, वचन में व काय में क्रोधादिक कषाय प्रकट होते हैं, उसके शुद्धोपयोगरूप भावप्राणों का घात तो पहिले होता है क्योंकि, कषाय के प्रादुर्भाव से भावप्राण का व्यपरोपण होता है, यह प्रथम हिंसा है, पश्चात् यदि कषाय की तीव्रता से, दीर्घ श्वासोच्छ्वास से, हस्तपादादिक से वह अपने अंग को कष्ट पहुँचाता है अथवा आत्मघात कर लेता है तो उसके द्रव्य प्राणों का व्यपरोपण होता है, यह दूसरी हिंसा है। फिर उसके कहे हुए मर्मभेदी कुवचनादिकों से व हास्यादि से लक्ष्यपुरुष के अन्तरंग में पीड़ा होकर उसके भावप्राणों का व्यपरोपण होता है, यह तीसरी हिंसा है। और अन्त में इसके तीव्रकषाय व प्रमाद से लक्ष्यपुरुष को शारीरिक अंगछेदन आदि पीड़ा पहुँचायी जाती है सो परद्रव्यप्राण-व्यपरोपण होता है, यह चौथी हिंसा है। सारांश-कषाय से अपने-पर के भावप्राण व द्रव्यप्राण का घात करना यह हिंसा का लक्षण है।" हिंसा का स्वरूप : ____ इन परिभाषाओं से यह साफ जाहिर होता है कि हिंसा के दो रूप होते हैं-भावहिंसा और द्रव्याहिंसा। मन में कषाय का जाग्रत होना भावहिंसा है और मन के भाव को वचन और क्रिया का रूप देना द्रव्यहिंसा कहलाती है। इन दोनों के चार विकल्प माने गये हैं । दशवैकालिकचूणि में कहा गया है ___ "सा य मणवयणकाएहिं जोएहिं दुप्पउत्तेहिं जं पाणववरोवणं कज्जइ सा हिंसा, तत्थ भंगा चत्तारि-दव्वतोवि एगा हिंसा भावओवि, एगा हिंसा दव्वओ न भावओ, एगा भावओ न दव्वओ, अण्णा ण दव्वओ न भावओ,.........." १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय-अनु० नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ ३१, सूत्र ४३. २. दशकालिकचूणि-जिनदासगणि, प्रथम अध्ययन, पृ० २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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