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________________ अहिंसा-संबंधी जैन साहित्य १२३ श्रामण्य-पूर्विक में यह बताया गया है कि श्रामण्य कैसे प्राप्त किया जा सकता है । यदि समदृष्टि से विचरने वाले साधु का मन पूर्वभुक्त विषय को याद करके विचलित हो तो उसे ऐसा सोचना चाहिए कि वे भोग्य वस्तुएं मेरी नहीं हैं और न मैं ही उनका हूँ और ऐसा सोचकर उसे राग-द्वेष से अपने को अलग कर लेना चाहिए ।" क्षुल्लिकाचार नामक अध्याय में उद्देशिक, क्रीत, नित्यपिण्ड, रात्रिभक्त, स्नान - हस्तपादादि ५२ अनाचीर्ण बताए गए हैं, अर्थात् वे ५२ कर्म साधुओं के लिए अनावरणीय हैं । इसी सिलसिले में कहा है - - "इन ५२ अनाचीर्णों का सेवन नहीं करने वाले, हिंसादि पांचों आश्रवों के त्यागी, मनादि तीनों गुप्तियों से गुप्त, पृथिव्यादि षट्काय के रक्षक, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करने - वाले, बाईस परीषह प्राप्त होने पर धैर्य धारण करनेवाले, माया कपटरूप ग्रन्थि रहित और संयम को देखनेवाले होते है ।"२ षट्जीवनिकाय में बताया गया है कि कोई व्यक्ति षट्कायपृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस - काय का न स्वयं आरम्भ करे, न किसी से आरम्भ करवाये और न आरम्भ करनेवाले का अनुमोदन करे और इसे जीवन पर्यन्त निभाये ॥ ३ एमए समरणामुत्ता, जे लोए संति साहुगो । विहंगभाव पुप्फेसु, दारणभत्तेसरया ||३|| १. समाइ पेहाए परिव्वयंतो, सियामरणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नो वि श्रहंपि तीसे, इच्चेव ताओ विणइज्ज रागं ॥४॥ २. पंचासव परिन्नाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणाधीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥११॥ ३. इच्चेसि छण्हं जीवनिकायारणं-नेव सयं दंडं समारम्भेज्जा, नेवन्नेहि दंड समारंभेज्जा, दंडं समारंभंतेवि अन्नेनसमणुजागेज्जा, जावज्जीवाए तिविहं तिविरणं मरणं वायाए काएणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजारणामि, तस्स भंते ! पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ||१०|| Jain Education International --- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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