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________________ १०२ जैन धर्म में अहिंसा ___ जैन आगमिक साहित्य के अंग, उपांग, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभिन्न भाग हैं, जिनमें जैन-विचारधारा दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक आदि अपने भिन्न-भिन्न रूपों में प्रवाहित होती है । जैनाचार यद्यपि सम्पूर्ण जैन साहित्य में पल्लवित एवं पुष्पित होता है, इसके मूलस्रोत अंग हैं। अंग बारह हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्म कथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत तथा दष्टिवाद (लुप्त)। इनमें से निम्नलिखित अहिंसादि आचारकर्मों पर विशेष प्रकाश डालते हैं। आचारांग: आचारांग समग्र जैन आचार की आधारशिला है। उपलब्ध समग्र जैन साहित्य में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीनतम है, यह इसकी प्राकृत-भाषा, तनिष्ठ शैली एवं तद्गत भावों से सिद्ध है।' प्रधानतौर से यह दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित हुआ है, जिनमें से प्रथम गणधर रचित तथा दूसरा स्थविर रचित है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ६ अध्ययन हैं-शस्त्रपरिज्ञा, लोकविजय, शीतोष्णीय, सम्यकत्व, लोकसार, धूत, महापरिज्ञा जो अब उपलब्ध नहीं है, विमोक्ष तथा उपधानश्रत । ये अध्ययन उद्देशकों में विभक्त हैं जिनकी संख्या ४४ है, और ये उद्देशक ब्रह्मचर्य कहे जाते हैं। 'ब्रह्मचर्य' शब्द का प्रयोग संयम यानी समता अर्थात् अहिंसा के लिए किया गया है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में, जिसे नियुक्तिकार ने 'आचारान' कहा है, पांच चूलाएँ हैं, जिनमें १७ अध्यपन हैं। विषय को दृष्टि से प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन निम्न प्रकार से हैं प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक-सुधर्मा स्वामी ने जम्बु स्वामी से वार्तालाप करते हुए इस उद्देशक में आत्मा का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया है, साथ ही कर्म-बन्धन के कारणों एवं फलों की भी चर्चा की है। इसके ग्यारहवें सूत्र में हिंसा के कारण को बताते हुए कहा है कि बहुत से संसारी जीव अपने को दीर्घायु बनाने, यश १. प्राकृत और उसका साहित्य-डा. मोहनलाल मेहता, पृष्ठ ४, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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