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________________ लेखकीय (द्वितीय संस्करण) आज के वैज्ञानिक युग में मानव जीवन का बाह्य पक्ष जितना ही विस्तृत होता जा रहा है, आन्तरिक पक्ष उतना ही संकीर्ण होता जा रहा है। इसलिए मानव ने अपनी वैज्ञानिक खोजों के सदुपयोग की जगह उनके दुरुपयोग को पसन्द करने लगा है। उसकी मानवी प्रवृत्ति क्षीण हो रही है और दानवी प्रवृत्ति बलवती हो रही है । वह भूल गया है कि एक सुखद एवं शान्तिमय जीवन के लिए घृणा नहीं प्रेम की, द्वेष नहीं दोस्ती की, दुर्भाव नहीं सद्भाव की तथा हिंसा नहीं अहिंसा की आवश्यकता होती है। हिंसा विनाश लाती है और अहिंसा विकास प्रदान करती है। वर्तमान भयाक्रान्त मानव जीवन को भयमुक्त बनाने के लिए अहिंसा मार्ग को अपनाने के सिवा अन्य कोई उपचार नहीं है। अहिंसा-सिद्धान्त का सबसे प्रबल प्रतिपादक एवं प्रतिपालक जैन धर्म-दर्शन है। अहिंसा-सिद्धान्त यद्यपि एक प्राचीन मत है फिर भी इसकी प्रासंगिकता मानव जीवन एवं विश्व शान्ति के लिए आज तो है ही, भविष्य में भी रहेगी। “जैन-धर्म में अहिंसा" प्रथम बार सन् १९७२ में प्रकाशित हुई थी। लगभग सन् १९८० तक इसकी प्राय: सभी प्रतियाँ बिक चुकी थीं। तब से आज तक कहीं न कहीं से इसके लिए अहिंसा सम्बन्धी शोधकर्ताओं की मांगें आती रही हैं। गत वर्ष तो मुझे सासाराम (बिहार) की एक शोध छात्रा के लिए इस सम्पूर्ण पुस्तक का फोटो-स्टेट उसके यहाँ भेजवाना पड़ा था। आज “जैन-धर्म में अहिंसा' अपने द्वितीय संस्करण में मुद्रित होकर अहिंसा प्रेमियों की समझ उपस्थित है। इससे मुझे अति प्रसन्नता हो रही है। जैन धर्म-दर्शन, विशेष रूप से अहिंसा के प्रचार-प्रसार में रुचि रखने वाले श्रद्धेय श्री रतन लाल जी वाफना, जलगाँव (महाराष्ट) ने "जैन-धर्म में अहिंसा के द्वितीय संस्करण के प्रकाशन के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की है। मैं उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। डॉ० सागरमल जी जैन, माननीय सचिव, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी का भी मैं कृतज्ञ हूँ, जिनके प्रयास से यह सहायता मिल सकी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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