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________________ जैन धर्म में अहिंसा कर दो।' यदि कोई तुम्हारा कोट लेना चाहता है तो तुम अपना अंगरखा ( Cloak ) भी दे दो। यदि कोई तुम्हें अपने साथ एक मील चलने को बाध्य करता है तो उसके साथ दो मील तक जाओ। जो कुछ भी तुमसे कोई मांगता है उसका स्वामित्व तुम उसे दे दो और फिर उस व्यक्ति से उधार मांग लो, उसे लौटाओ नहीं। पुनः आपस के प्रेम को प्रकाशित करते हुए उन्होंने पंचम धर्मादेश में कहा है कि पुराने सिद्धान्त पर ध्यान मत दो, जो कहता है- 'पड़ोसी को प्यार करो और शत्रु से घणा करो' । बल्कि शत्रु को प्यार करो, जो तुम्हें शाप दे उसे वरदान दो; जो तुम्हारा बुरा करे उसका भला करो; और जो तुम से ईर्ष्या करता है तुम पर किसी प्रकार का अभियोग लाता है, उसके लिए दुआ करो। तभी तुम अपने उस पिता ( ईश्वर ) की सच्ची सन्तान बन पाओगे, जो स्वर्ग में रहता है और सूर्य को समान रूप से बुरी या भली प्रकृति वालों को धूप प्रदान करने को और बादल को समान रूप से न्यायी या अन्यायी को जल देने को प्रेरित करता है। इस प्रकार ईसाई-परम्परा में जन-जीवन के प्रेम को ईश्वरप्रेम का रूप दिया गया है, जो अनियंत्रित है जिसमें न कोई गांठ है, और न कोई सीमा ही है। सचमुच प्रेम ही अहिंसा है या अहिंसा ही. प्रेम है। प्रेम के बिना अहिंसा और अहिंसा के बिना प्रेम की कल्पना की ही नहीं जा सकती। प्रेम भी वहीं होता है जहाँ प्रतिकार या द्वेष की भावना का लोप होता है। इसीलिए ईसाई-परम्परा में माना गया है कि जहाँ पर विनम्रता एवं विश्व-बन्धत्व के भाव पाए जाते हैं वहीं पर ईश्वरीय राज्य होता है।४ ईश्वर की सेवा का अर्थ होता है पूरे मानव समाज के ईश्वर की सेवा, मात्र किसी एक धर्म द्वारा प्रतिपादित ईश्वर की ही नहीं। ईश्वरीय राज्य पर तो गरीबों एवं अवहेलितों का अधिकार होता है। धनी वर्ग से इस ईश्वरीय राज्य के सम्बन्ध को दिखाते हुए ईसा ने कहा है कि एक ऊँट का सूई 1. Bible, Matthew v. 2. Ibid. 3. G.W.R., p. 172. 4. Ibid., p. 170. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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