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________________ असद्भूतव्यवहारनय / ६९ नय के भेद' नामक अध्याय में भी इस पर प्रकाश डाला जायेगा। यदि केवल अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म के अन्यत्र समारोपण को असद्भूतव्यवहारनय माना जाय, तो जैसे मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना सर्वथा असत्य होता है, वैसे ही शरीरादिपर्यायों और रागादिभावों को असद्भूतव्यवहारनय से सोपाधिक जीव की पर्यायें कहना भी मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहने के समान सर्वथा असत्य हो जायेगा। इसी प्रकार जीवपरिणाम और पुद्गलपरिणाम में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध तथा परद्रव्य और आत्मा में ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी असद्भूतव्यवहारनय से ही घटित होते हैं। ये सम्बन्ध भी मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहने के समान सर्वथा मिथ्या सिद्ध होंगे। अतः स्पष्ट है कि असद्भूतव्यवहारनय का विषय मात्र उपचार नहीं है, अपितु सोपाधिक पदार्थ, तज्जन्य औपाधिकभाव एवं परद्रव्यसम्बन्ध की वास्तविकता का बोध कराना भी है। फलस्वरूप इस नय के वास्तविक और अवास्तविक विषयों को स्पष्ट करने के लिए यहाँ असद्भूतव्यवहारनय के तीन भेद किये गये हैं : उपाधिमूलक, बाह्यसम्बन्धमूलक एवं उपचारमूलक। प्रस्तुत अध्याय में प्रथम तीन वास्तविक विषयों से सम्बन्धित असद्भूतव्यवहारनय का ही अनुशीलन किया जायेगा। उपाधिमूलक असद्भूतव्यवहारनय ( सोपाधिकपदार्थावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि ) जो तत्त्व वस्तु में अस्वाभाविकभाव की उत्पत्ति का प्रयोजक ( प्रेरक ) होता है, उसे उपाधि कहते हैं --- 'प्रयोजकश्चोपाधिरित्युच्यते।" उससे युक्त पदार्थ सोपाधिक पदार्थ कहलाता है। जीव के साथ अनादि से शरीर और द्रव्यकर्मों के रूप में पुद्गलद्रव्य का संयोग है, जिसके निमित्त से जीव की अनेक अस्वाभाविक अवस्थाएँ होती हैं। अत: पुद्गलद्रव्य जीव की उपाधि है और पुद्गलरूप उपाधि से युक्त जीव सोपाधिक जीव। इसे अशुद्ध जीव या अशुद्धोपादानात्मक जीव भी कहते हैं। इसी प्रकार जीव के शुभाशुभ परिणाम के निमित्त से पुद्गलद्रव्य भी ... (ख) अपि वाऽसद्भूतोऽनुपचरिताख्यो नय: स भवति यथा । क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवाः ।। पञ्चाध्यायी/प्रथम अध्याय/श्लोक, ५४६ १. तर्कभाषा/केशवमिश्र, पृ० ७५ २. "हे भगवन् ! रागादीनामशुद्धोपादानरूपेण कर्तृत्वं भणितं तदुपादानं शुद्धाशुद्धभेदेन कथं द्विधा भवतीति ? तत्कथ्यते। औपाधिकमुपादानमशुद्धं तप्तायःपिण्डवत्। निरुपाधिरूपमुपादानं शुद्धं पीतत्वादिगुणानां सुवर्णवत् ।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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