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________________ निश्चयनय । ६३ हिंसाभाव एवं प्रमत्तयोग के निमित्त से हो जाता है। इससे वह समझता है कि मैं दूसरों को मार सकता हूँ, बचा सकता हूँ, उनका भला-बुरा कर सकता हूँ। इन्द्रियों के साथ इष्टानिष्ट विषयों का संसर्ग होने से आत्मा को सुख-दुःख की अनुभूति होती है, जो आत्मा की ही पर्यायों का वेदन है, किन्तु इस कारण जीव अपने को विषयों का भोक्ता समझता है। संसार के पदार्थ सुख-दुःख के हेतु नहीं हैं। उनके निमित्त से मोही जीव स्वयं सुख-दुःखरूप से परिणत होता है, किन्तु उसे पदार्थ ही सुख-दुःख के स्रोत प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार शुद्धोपयोगरूप परमार्थ मोक्षमार्ग से अनभिज्ञ होने के कारण वह शुभप्रवृत्तियों को ही मोक्ष का परमार्थ मार्ग मान लेता है। इस प्रकार अनादि मिथ्यात्व तथा एकान्तव्यवहाराश्रित मिथ्या उपदेश के फलस्वरूप अथवा व्यवहार को निश्चयनिरपेक्ष होकर ग्रहण करने के कारण जीव अनेक मिथ्याधारणाओं के जाल में फँस जाता है। इनका विनाश निश्चयनयात्मक उपदेश के ग्रहण करने से होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - "भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो'' अर्थात् मूलपदार्थावलम्बी निश्चयनय का ( व्यवहारनय के विषय का निषेध न करते हुए ) आश्रय लेने से जीव सम्यग्दृष्टि होता है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति मिथ्याविकल्पों का नाश होने पर होती है। मिथ्याविकल्पों का विनाश भूतार्थ को जानने से होता है। इस तथ्य की ओर दृष्टि आकर्षित करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है - “अज्ञानी जीव ऐसे मिथ्या विकल्प करता है कि मैं देह हूँ, देह मेरा स्वरूप है, स्त्री-पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा धन-धान्यादि अचेतन पदार्थ मेरे हैं, मेरे थे और मेरे रहेंगे। किन्तु जब भूतार्थ ( निश्चयनय द्वारा दर्शित शुद्ध आत्मस्वरूप ) को जान लेता है तब ये विकल्प छोड़ देता है।"२ आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - "जो साधु शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक निश्चयनय से निरपेक्ष होकर अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मक व्यवहारनय का आश्रय लेता है वह मिथ्यात्वग्रस्त होकर देह और धनादि परद्रव्य से ममत्व नहीं छोड़ पाता। फलस्वरूप शुद्धात्मपरिणतिरूप मोक्षमार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्मपरिणतिरूप उन्मार्ग पर ही चलता है। इससे सिद्ध है कि अशुद्धनय के आश्रय से अशुद्धात्मा १. समयसार/गाथा, ११ २. वही/गाथा, २०-२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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