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निश्चयनय । ६१
गये गुण-गुणी भेद को मौलिक भेद के रूप में स्वीकार नहीं करती, उसके द्वारा परद्रव्य से जो सम्बन्ध दर्शाये गये हैं, उन्हें वस्तु की सत्ता के भीतर अस्वीकार करती है तथा परद्रव्य के निमित्त से होनेवाले जो भाव आत्मा के भाव कहे गये हैं, उन्हें आत्मा का स्वाभाविक भाव नहीं मानती, इसी प्रकार उपचार से जिन्हें जीवादि पदार्थ कहा गया है, उन्हें वास्तविक जीवादि के रूप में ग्रहण नहीं करती।
निष्कर्ष यह कि ज्ञाता की निश्चयनयरूप दृष्टि पुद्गलसंयुक्त आत्मा की आत्मा के रूप में प्रतीति न कराकर मूल ( स्वतन्त्र ) आत्मा की ही आत्मा के रूप में प्रतीति कराती है, दर्शनज्ञानादि स्वभावविशेषों को आत्मस्वभाव के रूप में न दर्शाकर एक चैतन्यभावरूप मूलस्वभाव को ही आत्मस्वभाव के रूप में दर्शाती है, आत्मा और दर्शनज्ञानादि गुणों में जो संज्ञादि का भेद है उसका अनुभव न कराकर प्रदेश की अपेक्षा जो अभेद है उसका ही अनुभव कराती है, परद्रव्य से जो बाह्य सम्बन्ध हैं उनका बोध न कराकर उनसे जो प्रदेशगत भिन्नता है उसका ही बोध कराती है तथा आत्मा में जो कर्मनिमित्तक रागादिभाव उत्पन्न होते हैं उनका आत्मभाव के रूप में निश्चय न कराकर एक चैतन्यभाव का ही आत्मस्वभाव के रूप में निश्चय कराती है। इस प्रकार वह शुद्ध आत्मा का निश्चय कराती है।
निश्चयनयात्मक उपदेश के प्रयोजन अब इस बात पर विचार किया जा रहा है कि निश्चयनय का अवलम्बन कर जो उपदेश दिया जाता है उसके प्रयोजन क्या हैं ?
मिथ्याधारणाओं का विनाश अनादिकाल से मिथ्यात्व के कारण तथा मिथ्या उपदेश के कारण आत्मस्वरूप तथा मोक्षमार्ग के विषय में जीव की जो मिथ्या धारणाएँ चली आती हैं, निश्चयनयात्मक उपदेश से वे नष्ट हो जाती हैं तथा आत्मा के मौलिक स्वरूप एवं मोक्ष के वास्तविक मार्ग का ज्ञान होता है जो सम्यग्दर्शन के लिए आवश्यक
आचाय
आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - "इस जीव ने अनादिबद्धकर्मों के द्वारा विषयतृष्णा उत्पन्न किये जाने के कारण इन्द्रिय सुख की प्राप्ति के उपायों तथा इन्द्रियसुख का तो काफी ज्ञान और अनुभव किया है, इसके बारे में उसे दूसरों से भी काफी उपदेश मिला है और उसने भी दूसरों को बहुत कुछ सिखाया है, किन्तु, आत्मा के यथार्थ स्वरूप का न तो आज तक उसे स्वयं ज्ञान हो पाया है, न ही उसे दूसरों से प्राप्त करने का अवसर मिला है। कारण यह है कि आत्मा का शुद्ध चैतन्यस्वभाव कषायों से मिश्रित होने के कारण, एक तो स्वयं जीव की
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