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५६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
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द्रव्यश्रुत के अभ्यास ( अध्ययन ) को उपचार से स्वाध्याय नाम दिया गया है। निज शुद्धस्वरूप में चित्तवृत्ति के अविचलित रहने को नियतस्वलक्षण की अपेक्षा ध्यान कहा गया है। इसमें साधक होने से पञ्चपरमेष्ठी आदि के स्वरूपचिन्तन को उपचार से ध्यान संज्ञा दी गई है।
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शुद्धात्मपरिणति आदि की 'निःशङ्का' आदि संज्ञाएँ
सप्त भयों से मुक्त होकर घोर उपसर्ग और परीषह की स्थिति में भी शुद्धोपयोगरूप निश्चयरत्नत्रय में लीन रहने का जो गुण है उसकी नियतस्वलक्षण के अनुसार 'निःशङ्का' संज्ञा है। जिनोपदेश में शंका का अभाव इसकी सिद्धि में सहायक है। अतः इस सहायक गुण को उपचार से 'निःशंका' संज्ञा दी गई है।
दृष्ट, श्रुत और अनुभूत इन्द्रियभोगों का त्यागकर निश्चयरत्नत्रय की भावना से उत्पन्न पारमार्थिक स्वात्मोत्थ सुख के आस्वादन में तृप्ति अनुभव करने का जो गुण है उसका नियतस्वलक्षण की अपेक्षा 'निष्कांक्षा' नाम है । इहलोक और परलोक के सुखों की आकांक्षा का त्याग इसकी प्राप्ति में सहायक है । इसलिए इस सहायक गुण को उपचार से 'निष्कांक्षा' नाम दिया गया है। "
समस्त रागद्वेषादि विकल्पों का परित्याग कर निर्मल आत्मानुभूतिरूप निज शुद्धात्मा में स्थित होने का गुण नियतस्वलक्षण की अपेक्षा 'निर्विचिकित्सा' शब्द से संकेतित होता है। मुनियों और श्रावकों की शारीरिक बीभत्सता को देखकर घृणा के भाव को मन में न आने देना इसकी सिद्धि में सहायक है। अतः इस साधक
१. " स्वशुद्धात्मनि शोभनमध्यायोऽभ्यासो निश्चयस्वाध्यायः।”
बृहद्द्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका / गाथा, ५३
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२. “शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिर्हि ध्यानम् ।” पञ्चास्तिकाय / तत्त्वदीपिका / गाथा, १४६ “पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण पराश्रितधर्मध्यानबहिरङ्गसहकारित्वेनानन्तज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्मध्यानं प्राप्य
भावमोक्षं प्राप्नोतीति । "
वही / तात्पर्यवृत्ति/ गाथा, १५०-१५१ ४. “ रागादिदोषा अज्ञानं वाऽसत्यवचनकारणं तदुभयमपि वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति ततः कारणात्तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्त्वे मोक्षे मोक्षमार्गे च भव्यैः संशयः सन्देहो न कर्त्तव्यः । इदं व्यवहारेण सम्यक्त्वस्य व्याख्यानम् । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनि:शङ्कागुणस्य सहकारित्वेनेहलोकात्राणागुप्तिमरणव्याधिवेदनाकस्मिकाभिधानभयसप्तकं
मुक्त्वा घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावेनैव निःशङ्कगुणो ज्ञातव्य इति । " बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा, ४१
५. वही
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