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निश्चयनय । ४९
स्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण कर आगम में इसे निर्जरा नाम दिया गया है। और चूँकि शुद्धोपयोग के निमित्त से द्रव्यकर्मों का एकदेशक्षय होता है, इसलिए उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि का अनुगमन करते हुए जिनेन्द्रदेव ने कार्य में कारण के उपचार द्वारा द्रव्यकर्मों के एकदेशक्षय को निर्जरा शब्द से अभिहित किया है।
यहाँ नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से विचार करने के बाद उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि से विचार करने पर निश्चित होता है कि द्रव्यकर्मों के एकदेशक्षय की निर्जरा संज्ञा अवास्तविक है, अत: शुद्धोपयोग ही वास्तविक निर्जरा है। इससे द्रव्यकर्मों के एकदेशक्षय को वास्तविक निर्जरा समझ लेने की भूल नहीं हो पाती।
क्षायिकसम्यग्दर्शनादि की 'मोक्ष' संज्ञा क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्ज्ञान तथा यथाख्यात नामक क्षायिक सम्यक्चारित्र, इन तीनों की अभिन्नता जिसमें होती है, उस आत्परिणाम से समस्त कर्मों का क्षय होता है, अत: वह मोक्ष का नियतस्वलक्षण है।' इसलिए नियतस्वलक्षणावलम्बी निश्चयनय के अनुसार सर्वज्ञ ने उसे मोक्ष संज्ञा दी है और क्योंकि वह सम्पूर्ण द्रव्यकर्मों के क्षय का निमित्त है, फलस्वरूप उपचारावलम्बी व्यवहारनय का अनुगमन कर नैमित्तिक में निमित्त के नाम का उपचार किया है अर्थात् सम्पूर्ण द्रव्यकर्मों के क्षय को मोक्ष नाम दिया है।' यहाँ भी जब उपर्युक्त दोनों दृष्टियों से विचार किया जाता है तब क्षायिकसम्यग्दर्शनादिमय आत्मपरिणाम ही वास्तविक मोक्ष सिद्ध होता है, सम्पूर्ण द्रव्यकर्मों के क्षय की 'मोक्ष' संज्ञा अवास्तविक ठहरती है।
रागादि के अभाव की "हिंसादि' संज्ञाएँ रागादिभाव से ग्रस्त होकर किसी जीव का घात करने पर घातक को कर्मबन्ध होता है। रागादि के अभाव में पूर्ण यत्नाचार करते हुए जीवघात हो जाने पर भी कर्मबन्ध नहीं होता। इसलिए रागादिभाव के साथ ही कर्मबन्ध का अन्वयव्यतिरेक होने से रागादि की उत्पत्ति अथवा प्रमत्तभाव हिंसा का नियतलक्षण है। यत: रागादि की उत्पत्ति हिंसा का नियतलक्षण है, अत: रागादि की अनुत्पत्ति अहिंसा १. “निरवशेषकर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञानदर्शनयथाख्यातचारित्रसंज्ञितेन अस्यन्ते स
मोक्षः।" भगवतीआराधना, टीका ३८/१३४ २. “बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृतस्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः।" तत्त्वार्थसूत्र, १०/२ ३. मरदु वा जियदु वा जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। प्रवचनसार, ३/१७
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