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प्रकाशकीय आत्मादि पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं, अर्थात् परस्परविरुद्ध अनेक धर्मयुगलों से युक्त हैं। ये धर्म परस्परविरुद्ध होते हुए भी वस्तुव्यवस्था के साधक हैं। वस्तु की शाश्वतता और उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन तथा विभिन्न लौकिक और आध्यात्मिक प्रयोजनों की सिद्धि इन परस्पर विरुद्ध धर्मों पर ही आश्रित है। सर्वज्ञ ने एक ही वस्तु में इनके अविरोधपूर्वक रहने की युक्तिमत्ता निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा प्रतिपादित की है। सम्यग्दर्शन के लिए आत्मादि पदार्थों के परस्परविरुद्ध धर्मों तथा एक ही स्थान में उनके अविरोधपूर्वक रहने की तर्कसंगतता का अवबोध आवश्यक है। यह निश्चय और व्यवहार नयों के स्वरूप एवं उनके पारस्परिक भेद को सम्यग्रूपेण हृदयंगम करने से ही सम्भव है।
नयों के अज्ञान या अधकचरे ज्ञान से बड़ा अनर्थ होता है। लोगों को जो वस्तुरूप विरोधी प्रतीत होता है उसे वे असत्य मान लेते हैं, अथवा निश्चयनय द्वारा कहे गये वस्तुस्वरूप को व्यवहारनय द्वारा कहा गया मान लेते हैं और व्यवहारनय द्वारा निरूपित स्वरूप को निश्चयनय द्वारा प्ररूपित समझ लेते हैं, अथवा निश्चयनय के कथन को सर्वथा सत्य और व्यवहारनय के कथन को सर्वथा असत्य रूप में ग्रहण कर लेते हैं।
ऐसा भी होता है कि कुछ विद्वान् किसी विशिष्ट प्रयोजन से अर्थात् अपनी किसी कल्पित मान्यता को आगमसम्मत सिद्ध करने के लिए निश्चय और व्यवहार नयों की जानबूझकर गलत व्याख्या करते हैं और उस गलत व्याख्या के आधार पर सर्वज्ञ के कथन को अपनी मान्यतानुसार तोड़मरोड़ कर प्ररूपित करते हैं। नयज्ञानविहीन श्रोता उनके प्ररूपण की समीचीनता का स्वयं निर्णय करने में असमर्थ होते हैं, अत: जैसा वे विद्वान प्ररूपित करते हैं वैसा ही मान लेते हैं। इससे एक दुर्निवार गृहीतमिथ्यात्व की परम्परा चल पड़ती है, जो लोगों को मोक्षमार्ग पर ले जाने की बजाय घोर संसारमार्ग पर ले जाती है। अनादिकाल से ऐसा होता आ रहा है, किन्तु वर्तमानकाल में इसका कुछ उग्ररूप ही दिखायी देता है। आज जैनविद्वज्जगत् में निश्चय और व्यवहार को लेकर परस्पर विरोधी विचारधाराएँ चल रही हैं और अपनी विचारधारा के समर्थन तथा विरोधी विचारधारा के खण्डन में प्रचुर साहित्य रचा गया है और रचा जा रहा है। लगभग एक शब्द-युद्ध सा जारी है, जिसने अबोध जिज्ञासुओं को या तो दिग्भ्रमित कर दिया है या किङ्कर्त्तव्यविमूढ़ता
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