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४० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
प्रयोजन है। यह प्रयोजनगत भेद है। इसी प्रकार दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों में एक ही जीवद्रव्य व्याप्त होता है, किन्तु एक जीवद्रव्य में, दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुण अन्तर्मग्न होते हैं। यह संख्या की दृष्टि से भेद है । "
यह संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन का भेद बाह्य भेद है । मूलतः वस्तु और उसके धर्मों में अभेद है, क्योंकि उनके स्वभाव, प्रदेश या सत्ता अभिन्न होती है । स्वभावगत अभेद, प्रदेशगत अभेद, सत्तागत अभेद अथवा वस्तुरूप अभेद ये सब मौलिक अभेद के नामान्तर हैं।
यह
मौलिक- अभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि ( निश्चयनय ) का अनुसरण करते हुए अरहन्तदेव ने धर्म और धर्मी, गुण और गुणी, पर्याय और पर्यायी, कर्त्ता और कर्म आदि में भिन्नत्व का निषेध किया है और एकत्व दर्शाया है। अर्थात् धर्म और धर्मी आदि अलग-अलग वस्तु न होकर एक ही वस्तु के अलग-अलग नाम हैं, उपदेश दिया है। दूसरे शब्दों में जीवादि द्रव्यों को एकत्वमय, अद्वैत या अखण्ड बतलाया है।
धर्म-धर्मी में भिन्नत्व का निषेध
आचार्य कुन्दकुन्द ने उपर्युक्त निश्चयनय का अवलम्बनकर आत्मा से दर्शनज्ञानचारित्रादि धर्मों के भिन्न होने का निषेध इन शब्दों में किया है ववहारेणुवदिस्सर णाणिस्स चरित दंसणं णाणं । दंसणं जाणगो सुद्धो । '
वि गाणं ण चरितं ण
- आत्मा में दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है, इस प्रकार धर्म और धर्मी में भिन्नता दर्शानेवाला वर्णन व्यवहारनय से किया जाता है । निश्चयनय से न दर्शन आत्मा से स्वतन्त्र वस्तु है, न ज्ञान, न चारित्र, अपितु दर्शन भी आत्मा ही है, ज्ञान भी आत्मा ही है, चारित्र भी आत्मा ही है । अत: मात्र आत्मा ( ज्ञायक ) ही एक स्वतन्त्र वस्तु है।
१. “संज्ञादि : संज्ञासंख्यालक्षणप्रयोजनानि । गुणगुणीति संज्ञा नाम । गुणा अनेके गुणत्वेक इति सङ्ख्याभेदः । सद्द्रव्यलक्षणं, द्रव्याश्रयानिर्गुणा गुणाः इति लक्षणभेदः । द्रव्येण लोकमानं क्रियते, गुणेन द्रव्यं ज्ञायते इति प्रयोजनभेदः । यथा जीवद्रव्यस्य जीव इति संज्ञा । ज्ञानगुणस्य ज्ञानमिति संज्ञा । चतुर्भिः प्राणैर्जीवति जीविष्यति अजीवद् इति जीवद्रव्यलक्षणम् । ज्ञायते पदार्थ अनेनेति ज्ञानमिति ज्ञानगुणलक्षणम् । जीवद्रव्यस्य बन्धमोक्षादिपर्यायैरविनश्वररूपेण परिणमनं प्रयोजनम् । ज्ञानगुणस्य पुनः पदार्थपरिच्छित्तिमात्रमेव प्रयोजनमिति ।" आलापपद्धति/टिप्पण / सूत्र, ११२
२. समयसार / गाथा, ७
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