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________________ ३८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन हो जाता है। पूर्वप्रवृत्त मत्यादिज्ञानविकल्पों का अपगम होने पर सहजज्ञानस्वभाव के रूप में ध्रुव रहता है, अत: स्वयं अपादानभाव को प्राप्त होता है। अपने शुद्ध चैतन्यस्वभाव का स्वयं आधार होने से स्वयं अधिकरण है।" आचार्य अमृतचन्द्र परद्रव्य के साथ आत्मा के षट्कारकात्मक साध्य-साधक सम्बन्ध का निषेध करते हुए लिखते हैं - "स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमानः, उत्पत्तिव्यपेक्षया द्रव्यभावभेदभिन्नघातिकर्माण्यपास्य स्वयमेवाविर्भूतत्वाद्वा स्वयम्भूरिति निर्दिश्यते। अतो न निश्चयत: परेण सहात्मन: कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति।२।। - स्वयं ही षटकारकरूप से परिणत होने के कारण अथवा उत्पत्ति की अपेक्षा द्रव्यकर्म और भावकर्म इन दो प्रकार के घाती कर्मों का विनाशकर स्वयमेव आविर्भूत होने से आत्मा स्वयम्भू कहलाता है। अत: निश्चयनय से परद्रव्य के साथ आत्मा का कारकात्मक सम्बन्ध नहीं है। पर के साथ आधाराधेयसम्बन्ध का निषेध मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण करते हुए अरहन्तदेव ने आत्मा और परद्रव्य में आधाराधेय सम्बन्ध का भी अभाव बतलाया है। इस पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - “न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेन एकसत्तानुपपत्तेः। तदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसम्बन्धोऽपि नास्त्येव। तत: स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेय सम्बन्धोऽवतिष्ठते।"३ -एक वस्तु में दूसरी वस्तु की सत्ता नहीं है, क्योंकि दोनों के प्रदेश परस्पर भिन्न हैं, इसलिए उनकी एक सत्ता की उपपत्ति नहीं होती। एकसत्तात्मक न होने से उनमें आधाराधेयसम्बन्ध भी नहीं है। वस्तु स्वरूप में ही स्थित होती है, अत: स्वरूप के ही साथ उसका आधाराधेय सम्बन्ध घटित होता है। पुद्गलकर्मनिमित्तक रागादिभावों के साथ आत्मा के उक्त सम्बन्ध का निषेध करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं - उवओए उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो । कोहे कोहो चेव ही उवओगे णत्थि खलु कोहो ।। १. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका एवं तात्पर्यवृत्ति १/१६ २. वही/तत्त्वदीपिका १/१६ । ३. समयसार/आत्मख्याति/गाथा, १८१-१८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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