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३६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
आत्मा का स्वपर्याय के साथ अभेद ( तादात्म्य ) होता है, अत: वह निजपर्याय को तन्मय होकर जानता है। फलस्वरूप अभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से अवलोकन करने पर स्वयं के साथ ही आत्मा का ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध निश्चित होता है। यतः केवली भगवान् की स्वकीय ज्ञानपर्याय सर्वज्ञेयाकारमय होती है, इसलिए आत्मज्ञता में सर्वज्ञता गर्भित है, किन्तु जब उनके लिए 'सर्वज्ञ' शब्द का प्रयोग किया जाता है तब वह व्यवहारनय से ही उपपत्र होता है।
पर से श्रद्धेय-श्रद्धानकारकसम्बन्ध का निषेध
जीवादिपरद्रव्य के निमित्त से आत्मा का श्रद्धानस्वभाव जीवादिश्रद्धानरूप से परिणमित होता है, किन्तु आत्मा जीवादि परद्रव्यरूप से परिणमित ( तन्मय ) नहीं होता, इसलिए परद्रव्य से भिन्न रहने के कारण मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से आत्मा और परद्रव्य में श्रद्धेय-श्रद्धानकारक सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता।' जीवादि परद्रव्य के निमित्त से होने वाले अपने श्रद्धानपरिणाम से ही आत्मा तन्मय होता है, अत: मौलिक-अभेदावलम्बी निश्चयनय दर्शाता है कि आत्मा स्वयं का ही श्रद्धानकारक है और स्वयं ही श्रद्धेय। तथापि जीवादिपरद्रव्य और आत्मा के जीवादिश्रद्धानरूप परिणाम में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध होता है, उसके कारण उपचारावलम्बी व्यवहारनय से जीवादिपरद्रव्य को 'श्रद्धेय' शब्द से तथा आत्मा को 'जीवादि-श्रद्धानकारक' शब्द से अभिहित किया जाता है।'
पर से साध्यसाधकसम्बन्ध का निषेध यत: आत्मा भिन्न द्रव्य के रूप में परिणमित ( तन्मय ) नहीं हो सकता अथवा भिन्नद्रव्य से उसका प्रदेशात्मक अभेद नहीं हो सकता, उनमें दूरी ही बनी रहती है, इसलिए मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से परीक्षण करने पर परद्रव्य के साथ आत्मा का मोक्षविषयक साध्यसाधकभाव उपपन्न नहीं होता। अत: जिनेन्द्रदेव ने उक्त निश्चयनय का आश्रय लेकर परद्रव्य के साथ जीव के साध्य-साधक सम्बन्ध का अभाव प्रतिपादित किया है।
. आत्मा स्वयं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमित होकर सिद्धावस्था प्राप्त करता है। सम्यग्यदर्शनज्ञानचारित्ररूप परिणमन साधकभाव है तथा सिद्धत्वरूप परिणमन साध्यभाव। आत्मा इन दोनों पर्यायों से तन्मय होता है, इसलिए मौलिक अभेद पर आश्रित निश्चयनय से देखने पर वह स्वयं ही साध्य और स्वयं ही साधक १. “तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं श्रद्धेयस्य बहिर्भूतजीवादिपदार्थस्य निश्चयनयेन श्रद्धान
कारकं न भवति, तन्मयं न भवतीत्यर्थः।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ३५६-३६५ २. “जीवादिकं परद्रव्यं व्यवहारेण श्रद्दधाति न च परद्रव्येण सह तन्मयो भवति।" वही
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