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________________ ३४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन पर के साथ शेयज्ञायकसम्बन्ध का निषेध परद्रव्य और आत्मा भिन्न वस्तुएँ हैं। उनमें स्वभावभेद है, प्रदेशभेद है। इस मौलिक भेद पर ध्यान देने से अर्थात् मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से देखने पर उनमें भिन्नता ही दिखाई देती है, कोई सम्बन्ध दिखाई नहीं देता। इसलिए ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध के भी दिखाई देने का प्रश्न नहीं उठता। जैसा कि कहा गया है - "नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः'' - परद्रव्य और आत्मा में कोई भी सम्बन्ध नहीं होता। अथवा परद्रव्यों को जानते समय आत्मा परद्रव्यरूप से परिणमित ( तन्मय ) नहीं होता, स्वरूप में ही स्थित रहता है, इसलिए मौलिकरूप से भिन्न रहने के कारण मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से उनमें ज्ञेयज्ञायकरूप सम्बन्ध घटित नहीं होता। यह आशय आचार्य जयसेन ने निम्नलिखित शब्दों में प्रकट किया "ज्ञानं ज्ञेयं वस्तु जानाति तथापि धवलकुड्ये श्वेतमृत्तिकावन्निश्चयेन तन्मयं न भवति।"२ "ज्ञानमात्मा घटपटादिज्ञेयपदार्थस्य निश्चयेन ज्ञायको न भवति तन्मयो न भवतीत्यर्थः। तर्हि किं भवति ? ज्ञायको ज्ञायक एव स्वस्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थः।”३ - जैसे चना दीवार को सफेद करते हए भी दीवार से तन्मय नहीं होता ( दीवार में परिवर्तित नहीं होता ) इसलिए दीवार को निश्चयनय से सफेद नहीं करता, वैसे ही ज्ञान ज्ञेय को जानता है, तो भी उससे तन्मय नहीं होता ( ज्ञेयरूप में परिणत नहीं होता ), इसलिए उसे निश्चयनय से नहीं जानता। - ज्ञानस्वरूप आत्मा घटपटादि ज्ञेय पदार्थों का निश्चयनय से ज्ञायक नहीं है, इसका अभिप्राय यह है कि वह उनसे तन्मय नहीं होता। तो क्या होता है ? ज्ञायक ज्ञायक ही रहता है अर्थात् अपने स्वरूप में स्थित रहता है। इस प्रकार परद्रव्यों को जानते हए भी आत्मा उनसे भिन्न बना रहता है, अत: मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से देखने पर उनमें ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध का अभाव ही दृष्टिगोचर होता है। इसीलिए जिनेन्द्रदेव ने केवली भगवान् के निश्चयनय से सर्वज्ञ होने का निषेध किया है। किन्तु जैसे दर्पण में मुखादि की छाया पड़ती है, वैसे ही ज्ञान में परद्रव्यों १. समयसार/कलश, २०० २. वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ३५६-३६५ ३. वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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