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३२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
तह्मा उ जो विसुद्धो चेया सो णेव गिण्हए किंचि ।
णेव विमुंचइ किंचिवि जीवाजीवाण दव्वाणं ।।'
- आत्मा आहारक नहीं है, क्योंकि आहार पुद्गलमय होने से मूर्त है और आत्मा अमूर्त है। जो परद्रव्य है ( जिसकी सत्ता आत्मा से पृथक् है ) उसे ग्रहण करने या छोड़ने की शक्ति आत्मा में नहीं है, न स्वभाव से, न कर्मोदय के प्रभाव से। अत: समस्त परद्रव्यों से भिन्न होने के कारण आत्मा जीव या अजीव किसी भी परद्रव्य को न ग्रहण करता है, न त्यागता है।
श्री अमृतचन्द्र सूरि ने भी उपर्युक्त निश्चयनय का अनुसरण करते हुए आत्मा को आहारादि परद्रव्य के आदान और विसर्जन से शून्य बतलाया है :
अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत्पृथग्वस्तुता
मादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितम् ।'
- यह रागादिमल से रहित ज्ञानस्वरूप आत्मा परद्रव्यों से भिन्न है, स्वयं में नियत है तथा पृथक् वस्तुत्व धारण करता है, इसलिए न तो परद्रव्य का ग्रहण करता है, न विसर्जन।
निश्चयनय से परद्रव्य का ग्रहण तब कहलायेगा जब आत्मा उससे तन्मय हो जाय ( परद्रव्यरूप हो जाय ), किन्तु भिन्न द्रव्य होने के कारण ऐसा होता नहीं है। इसलिए मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि उसे परद्रव्य-ग्राहक के रूप में नहीं पाती। परद्रव्य ग्राहकत्व के अभाव में परद्रव्य-त्याजकत्व का भी अभाव हो जाता
तथापि जीव रागादि के वशीभूत होकर शरीर के साथ परद्रव्य का संश्लेष या संयोग होने के अनुकूल उपयोग ( इच्छा ) और तज्जन्य योग ( शारीरिक व्यापार को प्रेरित करने वाली आत्मप्रदेश-परिस्पन्दरूप चेष्टा ) करता है, जिससे शरीर के साथ इच्छित पदार्थ का संयोग या संश्लेष होता है। इसे ही उपचार से परद्रव्य का ग्रहण कहते हैं। इसी प्रकार संश्लिष्ट या संयुक्त पदार्थ के वियुक्त होने-योग्य
१. समयसार/गाथा, ४०५-४०७ २. समयसार/कलश २३५ ३. “नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेण तत्र
कर्तृकर्मभोक्तभोग्यत्वव्यवहारः।” समयसार/आत्मख्याति/गाथा ३४९-३५५ ४. “योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्तास्तु।"
वही/आत्मख्याति/गाथा १०० ५. “संश्लेषरूपेण व्यवहारनयेन गृह्णति।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ३४९-३५५
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