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________________ ३० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन के स्वभाववाले कार्य की ही उत्पत्ति सम्भव है। इसलिए जीव स्वपरिणाम का ही कर्ता है। किन्तु, जैसे मिट्टी से भिन्नस्वभाववाला वस्त्र उत्पन्न नहीं हो सकता वैसे ही जीव से पुद्गल के स्वभाववाला कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता। इससे सिद्ध है कि जीव पुद्गल के भावों का कर्ता कदापि नहीं है। अत: यह स्थित होता है कि जीव का स्वपरिणामों के साथ ही कर्ताकर्मभाव और भोक्ताभोग्यभाव है।' यतः एक ही वस्तु में कर्ता-कर्मभाव होता है अत: मौलिक-अभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण करते हुए जिनेन्द्रदेव ने आत्मा को आत्मभाव ( स्वपरिणाम ) का ही कर्ता और भोक्ता बतलाया है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में - णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयति पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ।। -( कर्त्ताकर्मादि के नियत स्वलक्षण का अनुसरण करनेवाली ) निश्चयदृष्टि से देखने पर यह निश्चय होता है कि आत्मा आत्मभाव का ही कर्ता है और आत्मभाव का ही भोक्ता। परद्रव्य से भोक्ताभोग्यसम्बन्ध का निषेध स्वभावभेद की अपेक्षा से ही केवलीभगवान् ने चेतन-अचेतन परद्रव्य के साथ जीव के भोक्ता-भोग्यसम्बन्ध का निषेध किया है। जीव चेतन है पुद्गल अचेतन। चेतन को अचेतन का स्पर्श नहीं हो सकता ( उसमें व्याप्त नहीं हो सकता ), तब भोग कैसे सम्भव है ? प्रदेशभेद के कारण एक जीव दूसरे जीव का भी स्पर्श नहीं कर सकता, इसलिए चेतन के द्वारा चेतन परद्रव्य का भी भोग सम्भव नहीं है। इस प्रकार मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि आत्मा को परद्रव्यभोक्ता के रूप में नहीं पाती। स्वभाव के साथ ही जीव का तादात्म्य होता है और उसी का भोग सम्भव होता है, जैसा कि कहा गया है : “जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्च।" अत: मुक्त जीव अपने स्वभावोत्थ अतीन्द्रिय सुख का भोग १. "मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्य करणाज्जीवः स्वभावस्य कर्ता कदाचित् स्यात्। मृत्तिकया वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तुमशक्यत्वात् पुद्गलभावानां तु कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः। ततः स्थितमेतज्जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्च।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा, ८०-८२. २. वही/गाथा, ८३ ३. वही/आत्मख्याति/गाथा ८०-८२ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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