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________________ निश्चयनय / २१ जब आत्मा को कर्मनिमित्तक मोहरागात्मक पर्याय के द्वारा अनुभव करते हैं तब उसका मोहरागादि से संयुक्त होना वास्तविक सिद्ध होता है, परन्तु जब स्वत:सिद्ध चैतन्यस्वभाव को दृष्टि में रखकर विचार करते हैं तब वह असत्य ठहरता है । ' मूलस्वभावावलम्बिनी दृष्टि से आत्मस्वरूप का निर्णय २ आत्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणों या विशेषस्वभावों में उसका शुद्ध चैतन्यरूप असाधारण स्वभाव ही समाया होता है, इसलिए वे सब चैतन्यस्वभावात्मक हैं। इसी कारण दर्शनज्ञानादि गुण आत्मा के असाधारण धर्म या नियतस्वलक्षण सिद्ध होते हैं। इस प्रकार शुद्ध चैतन्यभाव ही आत्मा का मूल स्वभाव है। अतः मूलस्वभावावलम्बिनी निश्चयदृष्टि से देखने पर आत्मा शुद्धचैतन्यरूप एकस्वभाववाला दिखाई देता है, दर्शनज्ञानादिरूप विशेषस्वभावात्मकता या अनेकस्वभावात्मकता असत्य ठहरती है। इसीलिए आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने पूर्वोद्धृत गाथा में कहा है कि जिस दृष्टि में आत्मा अविशेष ( दर्शनज्ञानादि विशेषों से रहित ) अर्थात् शुद्धचैतन्यरूप एकस्वभावात्मक दिखाई देता है, वही निश्चयदृष्टि है। इस मूलस्वभावावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण करके ही आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है " एकश्चितः चिन्मय एव भावो । " - चैतन्य ( आत्मा ) का तो एक चिन्मयस्वभाव ही है। मौलिक भेदावलम्बिनी दृष्टि से आत्मस्वरूप का निर्णय भिन्न वस्तुओं में जो स्वभावभेद अथवा प्रदेशभेद ( सत्ताभेद ) होता है वह मौलिकभेद का लक्षण है । जहाँ स्वभावभेद है वहाँ प्रदेशभेद अवश्यम्भावी है, जहाँ प्रदेशभेद है वहाँ स्वभावभेद अनिवार्य है। इस मौलिक भेद का अवलम्बन करनेवाली निश्चयदृष्टि ( निश्चयनय ) का अनुसरण करते हुए जिनेन्द्रदेव ने परद्रव्य और आत्मा में सभी प्रकार के सम्बन्धों का निषेध किया है, जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्र के निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट है १. “तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः स्वयंबोधबीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।" -- समयसार/आत्मख्याति / गाथा, १४ २. “ चेतनाया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव द्रष्टृत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव ।" वही / गाथा, २९८ - २९९ ३. वही / गाथा, १४ ४. वही / कलश, १८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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