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________________ १८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन अतिरिक्त पुद्गलादि शेष द्रव्यों में नहीं पाया जाता, जिसके कारण जीव पुद्गलादि द्रव्यों से भिन्न सिद्ध होता है, जिसके अभाव में जीव की सत्ता नहीं रहती तथा जो जीव के दर्शनज्ञानादि समस्त गुणों एवं देव-मनुष्यादि सभी पर्यायों में विद्यमान रहता है। अत: यह जीव का नियतस्वलक्षण है। जीव में अन्य भाव भी दिखाई देते हैं, जैसे शरीर, पुद्गलकर्म, मोहरागादि तथा केवलज्ञानादि, किन्तु ये जीव की सभी अवस्थाओं में विद्यमान नहीं होते तथा इनके अभाव में जीव का अभाव नहीं होता। उदाहरणार्थ, मनुष्यादि शरीर एवं मोहरागादि भाव जीव की संसार पर्याय में ही उपलब्ध होते हैं, मुक्तपर्याय में नहीं, फिर भी मुक्तपर्याय में जीव का अस्तित्व देखा जाता है। इसी प्रकार केवलज्ञानादि का मुक्तपर्याय में ही सद्भाव होता है, संसारपर्याय में नहीं, तथापि संसारपर्याय में जीव की सत्ता विद्यमान रहती है। अत: ये पदार्थ जीव के प्रतिनियत लक्षण सिद्ध नहीं होते। इसलिए इन्हें जीव संज्ञा नहीं दी जा सकती। एकमात्र शुद्धचैतन्यभाव ही जीव का प्रतिनियत लक्षण सिद्ध होता है, अत: उसी की जीव संज्ञा है। इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्र ने निम्नलिखित व्याख्यान में किया है - ___ "आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वाच्चैतन्यं स्वलक्षणम्। तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते, निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयं तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात् समस्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्य इति यावत् ।" । अर्थात् अपने अतिरिक्त समस्त शेष द्रव्यों में उपलब्ध न होने के कारण 'चैतन्य' आत्मा का स्वलक्षण है। वह अपने समस्त गुण-पर्यायों में व्याप्त होता है। चैतन्यस्वभावात्मक होने के कारण ही वे समस्त गुण और पर्यायें आत्मा के गण-पर्यायों के रूप में पहचानी जाती हैं। अत: उन समस्त गुणपर्यायों के समूह को आत्मा समझना चाहिये। चूँकि चैतन्यभाव का अस्तित्व गुणपर्यायों के रूप में ही होता है, अत: आत्मा चिन्मात्र ही है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इसी प्रकार अपने गणरूप विशेष-स्वभावों में असाधारणधर्म के रूप से व्याप्त होना मूलस्वभाव का लक्षण है। स्वभावभेद या प्रदेशभेद मौलिक भेद का लक्षण है और स्वभावों या प्रदेशों की अभिन्नता मौलिक अभेद का। इन नियत स्वलक्षणों के द्वारा निश्चयनय और व्यवहारनय के विषयों को सरलतया पहचाना जा सकता है। १. समयसार/आत्मख्याति/गाथा, २९४ २. “पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि।" प्रवचनसार, २/१४ ___ "प्रविभक्तप्रदेशत्वं हि पृथक्त्वस्य लक्षणम् ।" वही/तत्त्वदीपिका, २/१४ ३. “तद्भावो ह्येकत्वस्य लक्षणम्।" वही/तत्त्वदीपिका, २/१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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