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________________ निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास / २४३ व्यवहारसम्यग्दर्शन के आठ अंगों का अंगीकार, पच्चीस दोषों का परिहार तथा संवेगादि गुणों का पालन निश्चयसम्यक्त्व के परम्परया हेतु हैं। इसलिए जिनेन्द्रदेव ने इन्हें व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन कहा है, किन्तु व्यवहाराभास से ग्रस्त मनुष्य इन्हें ही निश्चयसम्यग्दर्शन मानता है। आगमज्ञान आत्मज्ञानरूप निश्चयसम्यग्ज्ञान का हेतु है, अत: उसे व्यवहारनय से सम्यग्ज्ञान संज्ञा दी गई है, किन्तु व्यवहार को ही निश्चय समझनेवाले मिथ्यादृष्टि आगमज्ञान से ही अपने को सम्यग्ज्ञानी मान बैठते हैं। स्त्री-पुत्र, शत्रु-मित्र, इन्द्रियविषय-धनसम्पत्ति आदि बाह्यपदार्थों के निमित्त से रागादि का उदय हो जाता है। इसलिए उन्हें व्यवहारनय से रागादि का हेतु कहा गया है। निश्चयनय से जीवकृत कर्म रागादि के मूल हैं। किन्तु व्यवहारपक्ष का ही अवलम्बन करनेवाला जीव बाह्य पदार्थ को परमार्थत: रागादि की उत्पत्ति का हेतु मानता है। अरहन्त भगवान् के प्रति भक्तिरूप शुभपरिणाम से पुण्यबन्ध होता है, जिससे स्वर्गादि इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट का निवारण होता है। शुभपरिणामों में अरहन्त निमित्त होते हैं, अत: व्यवहारनय से उन्हें स्वर्गादि का दाता और अनिष्ट का निवारक कहा जाता है। किन्तु व्यवहार को निश्चयरूप से ग्रहण कर लेने वाले जीव की यह धारणा बन जाती है कि वे वास्तव में स्वर्गमोक्ष के दाता तथा अनिष्ट के निवारक हैं। आभ्यन्तर निम्रन्थता ( मोहरागादि के त्याग ) को निश्चयनय से गुरु का लक्षण बतलाया गया है और बाह्य निर्ग्रन्थता ( वस्त्रादि परिग्रह के त्याग ) को व्यवहारनय से। किन्तु, व्यवहार को ही परमार्थ समझने वाला जीव मात्र बाह्य निर्ग्रन्थता को गुरु का वास्तविक लक्षण मान लेता है और केवल उसी को देखकर गुरु की पूजा करता है। अनेकान्त वस्तुतत्त्व तथा निश्चय-व्यवहारमोक्षमार्ग शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है। पर व्यवहाराभास से ग्रस्त मनुष्य शास्त्र के प्रति केवल इसलिए श्रद्धा रखता है कि उसमें व्रत-तप, दया, क्षमा, शील-सन्तोषादि व्यवहारधर्म का निरूपण हैं। ये उदाहरण व्यवहाराभास का परिचय देते हैं। उभयाभास निश्चय और व्यवहार दोनों नयों के कथन को भिन्न-भिन्न अपेक्षा से सत्य न मानकर निश्चयकथन को भी सर्वथा सत्य मानना और व्यवहारकथन को भी सर्वथा सत्य स्वीकार करना उभयैकान्त या उभयाभास कहलाता है। उभयाभासियों की धारणा Jain'Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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