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________________ २३८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन कर्म अजेय नहीं कर्मोदय होने पर आत्मा का उससे प्रभावित होना अनिवार्य है। जिस समय जिस कर्मप्रकृति का उदय होता है उस समय उसके अनुरूप आत्मपरिणाम अवश्य होता है। क्रोधप्रकृति का उदय होने पर क्रोधपरिणाम होना अनिवार्य है, मानादि प्रकृतियों के उदय में तदनुरूप परिणाम अवश्यम्भावी है। कर्मफल का अनुभव कराना ही उदय कहलाता है -'कर्मणामनभवनमुदयः।" उदयानुसार परिणाम अवश्य होता है। इसलिए बन्ध होना भी अनिवार्य है। किन्तु कर्म अजेय नहीं हैं, उन्हें जीता जा सकता है, उनके उदय को रोका जा सकता है, क्षयोपशम किया जा सकता है, क्षय किया जा सकता है, उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण किया जा सकता है। उनकी प्रेरकता तभी तक कायम रहती है, जब तक जीव उन पर अंकुश लगाने के लिए कमर नहीं कसता। शरीर में विष का प्रसार तभी तक होता है, जब तक ओषधि का प्रयोग नहीं किया जाता। जैसे ओषधि के प्रयोग से विष का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है, वैसे ही जब जीव सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की औषध का प्रयोग करता है तब कर्म मूच्छित हो जाते हैं, अशक्त हो जाते हैं, छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। गरुड़ के आगे सर्प का आतंक कब तक कायम रह सकता है ? कर्मशत्रुओं के हनन की विधि पर प्रकाश डालते हुए श्री ब्रह्मदेव सूरि लिखते हैं - ___ "संसारियों को निरन्तर कर्मबन्ध होता है, इसी प्रकार उदय भी होता है। शुद्धोपयोग के लिए अवकाश नहीं है, तब मोक्ष कैसे सम्भव है ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि कर्मोदय की अवस्था सदा एक-सी नहीं रहती। उसमें प्रबलता और मन्दता आती रहती है। अत: जैसे शत्रु की क्षीण अवस्था देखकर मनुष्य पौरुष करके उसका विनाश कर देता है, वैसे ही जब कर्मोदय मन्द होता है, तब ज्ञानी जीव निर्मलभावनारूप विशिष्ट खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रुओं का हनन कर देता अत: जहाँ कर्मोदय के निमित्त से आत्मा की रागादिरूप परिणति अनिवार्य है, वहीं आत्मा के सम्यक्त्वसहित शुभ एवं शुद्धपरिणामों से कर्मों का विनाश भी अवश्यम्भावी है। इसलिए कर्मों के प्रेरक होने से मोक्ष के असम्भव होने की शंका युक्तिसंगत नहीं है। निष्कर्ष यह कि कर्म प्रेरक निमित्त ही हैं। १. प्राकृत पञ्चसंग्रह/पृ० ६७६ २. बृहद्रव्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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