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________________ २२८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन ही उत्पन्न होगी, अन्य नहीं।' इससे सिद्ध है कि द्रव्य की पूर्वपर्याय ( उपादान ) जैसी होती है वैसा ही कार्य उत्पन्न होता है, न कि जैसा निमित्त मिलता है वैसा। वस्तुत: निमित्त भी पूर्वपर्यायसदृश कार्योत्पत्ति के अनुरूप ही मिलता है और वह स्वयमेव उपस्थित होता है। इस धारणा की असमीचीनता आगे प्रस्तुत युक्तियों और प्रमाणों से स्पष्ट हो जाती है। अशुद्धोपादानजन्य कार्य निमित्तप्रेरित इसमें सन्देह नहीं कि द्रव्य से वही कार्य उत्पन्न हो सकता है जिसे उत्पन्न करने की उस समय उसमें योग्यता होती है। कोई भी अन्य द्रव्य उससे अन्य कार्य उत्पन्न नहीं करा सकता, अपितु उसी कार्य की उत्पत्ति में सहायक बन सकता है। अर्थात् उसके उत्पन्न होने में जो प्रतिकूल परिस्थितियाँ ( बाधाएँ ) होती हैं, वे ही उसके स्वभावविशेष से दूर हो सकती हैं। निष्कर्ष यह कि कार्य के स्वरूप का नियामक उपादान ही होता है, निमित्त नहीं। किन्त, यह शुद्ध उपादान के विषय में तो सर्वथा सत्य है, पर अशद्ध उपादान के विषय में सर्वथा सत्य नहीं है, क्योंकि अशुद्धोपादान का निर्माण स्वयं निमित्ताधीन है। उदाहरणार्थ, आत्मा जो अनादि से अशुद्धोपादान बना हुआ है, वह पुद्गलकर्मों के निमित्त से ही बना हुआ है। आचार्य जयसेन ने स्पष्ट कहा है कि कर्मोपाधियुक्त जीव ही अशुद्ध उपादान है। ब्रह्मदेव सूरि का भी यही कथन है। अतः जब उपादान की अशुद्धता ही निमित्तप्रेरित है, तो उससे उत्पन्न होनेवाला अशुद्धकार्य निमित्तप्रेरित कैसे नहीं होगा ? उपादान का अशुद्ध होना स्वयं एक कार्य है जो पूर्णत: निमित्त पर निर्भर है। कोई भी वस्तु स्वयं अशुद्ध नहीं हो सकती। अतः स्पष्ट है कि अशुद्ध कार्य निमित्तप्रेरित होता है और वही कार्य उत्तरक्षण में उत्पन्न होनेवाले कार्य का उपादान बन जाता है। अत: अशुद्धोपादान का निमित्तप्रेरित होना अथवा अशुद्धकार्य का निमित्तप्रेरित होना, दोनों का तात्पर्य एक ही है। अभिप्राय यह है कि जब उपादान की अशुद्धि का नियमन निमित्त के हाथ में होता है, तब उससे उत्पन्न होनेवाले कार्य के स्वरूप का नियमन निमित्त के हाथ में होगा ही। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी १. जैनतत्त्वमीमांसा/पृ० ४५ २. वही/पृ० १५४ ३. “हे भगवन् ! रागादीनामशुद्धोपादानरूपेण कर्तृत्वं भणितं, तदुपादानं शुद्धाशुद्धभेदेन कथं द्विधा भवतीति? तत्कथ्यते। औपाधिकमुपादानमशुद्धं तप्ताय:पिण्डवत्। निरुपाधि रुपादानं शुद्धं पीतत्वादिगुणानां सुवर्णवत् ।' समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १०२ ४. बृहद्र्व्य संग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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