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२२६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
बाह्यत: सहकारी होता है, अत: उसका प्राधान्य नहीं है। इस कारण द्रव्य की स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती। इस विषय में भट्ट अकलंकदेव के निम्नलिखित वचन प्रमाण हैं -
"ननु बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति। नैष दोषः, बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात्।
- प्रश्न : यदि बाह्यद्रव्यादि के निमित्त से परिणमित होकर वस्तुएँ अपना परिणाम उत्पन्न करती हैं, तो इससे उनके स्वातन्त्र्य का विरोध होता है ?
समाधान : ऐसा नहीं है, क्योंकि बाह्य पदार्थ निमित्तमात्र होते हैं। __यहाँ इस युक्ति से विचार किया जाय कि धर्मादि द्रव्यों के निमित्त से ही जीव और पुद्गल के गति-स्थिति परिणाम सम्भव होते हैं, तो क्या इससे उनका स्वातन्त्र्य बाधित होता है ? क्या जीव अपने मोक्ष-पुरुषार्थ में असमर्थ हो जाता है ? यदि नहीं, तो निश्चित है कि कार्योत्पत्ति में परद्रव्य के निमित्तमात्र होने से वस्तु-स्वातन्त्र्य पर आँच नहीं आती।
इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि कथित विद्वानों का यह मत अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण है कि “एक वस्तु के कार्य का दूसरी वस्तु को निमित्तकर्ता कहना मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहने के समान उपचरित वचन ही है।' वस्तुत: यह उसी प्रकार का यथार्थ वचन है जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी का घड़ा कहना। इसके यथार्थ वचन होने का प्रमाण आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य अमृतचन्द्र तथा आचार्य जयसेन के निम्नलिखित वचन हैं -
जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे ।।
जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ।।।
- जीव न घट का कर्ता है, न पट का, न शेष द्रव्यों का। उसके योग ( आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द ) तथा उपयोग ( मानसिक व्यापार ) उनके कर्ता ( निमित्तकर्ता ) हैं, जीव मात्र अपने योगोपयोग का कर्ता है।
“अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ''३ जीव के अनित्य योग और उपयोग ही घट-पटादि द्रव्यों के निमित्त कर्ता हैं। ___“इति परम्परया निमित्तरूपेण घटादिविषये जीवस्य कर्तृत्वं स्यात् इस
१. तत्त्वार्थराजवार्तिक/अध्याय ५/सूत्र १ २. समयसार/गाथा १०० ३. वही/आत्मख्याति
४. वही/तात्पर्यवृत्ति Jain Education International
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