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________________ मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता / २०७ है। मोक्षमार्गप्रकाशक में पंडित टोडरमल जी ने भी इस तथ्य पर प्रकाश डाला है। वे कहते हैं - "द्रव्यानुयोग में निश्चय अध्यात्म-उपदेश की प्रधानता है। वहाँ व्यवहारधर्म का भी निषेध करते हैं। जो जीव आत्मानुभव का उपाय नहीं करते और बाह्य क्रियाकाण्ड में मग्न हैं, उनको वहाँ से उदास करके आत्मानुभवनादि में लगाने हेतु व्रतशीलसंयमादिक को हीन बतलाते हैं।"१ इसी ग्रन्थ में पंडित जी ने अन्यत्र कहा है - "जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने वहाँ तो शुभकार्य का निषेध ही है और जहाँ अशुभोपयोग होता जाने वहाँ प्रयत्नपूर्वक शुभ को अंगीकार करना चाहिए।"२ श्री माइल्ल धवल का कथन है कि स्वभाव की आराधना ( स्वभाव में लीन होने अर्थात् शुद्धोपयोग ) के समय व्यवहार को गौण करना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट किया है कि जैसे सरागदशा के जघन्य ( निम्न ), मध्यम और उत्कृष्ट भेद होते हैं, वैसे ही वीतरागदशा के भी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद होते हैं। जघन्य दशा सातवें गुणस्थान में होती है, उससे ऊपर मध्यम और उत्कृष्ट दशा है। पञ्चमकाल में सात गुणस्थान तो हो ही सकते हैं। अत: सप्तम गुणास्थान में स्वभाव की आराधना सम्भव होने से वहाँ व्यवहार को गौण किया जा सकता है। श्री माइल्लधवल के भाव को सिद्धान्तचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है - “पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में उत्तरोत्तर मन्दरूप से अशुभोपयोग होता है। चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान में उत्तरोत्तर अधिकरूप में परम्परया शुद्धोपयोग का साधक शुभोपयोग होता है। सातवें से बारहवें गुणस्थान में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से एकदेशशुद्धनयरूप शुद्धोपयोग होता है। अत: सातवें गुणस्थान में जघन्य वीतराग दशा है। इसलिए उस अवस्था में व्यवहार को गौण करने का उपदेश दिया गया है।" इन विवेचनों से स्पष्ट होता है कि व्यवहारधर्म सभी अवस्थाओं में हेय नहीं है, अपितु जब निश्चयधर्म के अवलम्बन की सामर्थ्य आ जाती है तब हेय है। इससे यह स्वयमेव फलित होता है कि मोक्ष की साधना एकान्तात्मक नहीं है। १. मोक्षमार्गप्रकाशक/आठवाँ अधिकार/पृ० २८४ २. वही/सप्तम अधिकार/पृ० २०६ ३. द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र/गाथा ३४२, ३४४ ४. वही/विशेषार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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