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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १८९ कहते हैं —, हेतु की यह परिभाषा प्रथम बार सुनने में आई है । समस्त शास्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि कार्य में किसी भी प्रकार सहायता पहुँचाने वाले तत्त्व को ही हेतु कहते हैं । कोई वस्तु भले ही बाधा न पहुँचाये, किन्तु यदि वह कार्योत्पत्ति में कोई योगदान नहीं करती, तो उसे हेतु ( साधक ) नहीं कहा जा सकता। जो शत्रु न हो उसे मित्र नहीं कहते, जिसमें मित्र के गुण होते हैं, उसे ही मित्र कहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति चिकित्सक कहलाता है जो रोगी की नीरोगता में बाधा न डाले अथवा रोगी के रोग को दूर करने वाला व्यक्ति चिकित्सक कहलाता है ? यदि पहली बात सत्य हो, तो संसार के सभी मनुष्य किसी भी रोगी के चिकित्सक कहलाने लगेंगे, क्योंकि वे उसकी नीरोगता में बाधा पहुँचाने नहीं जाते । वस्तुतः अबाधक तत्त्व को साधक नहीं कहते, अपितु जो बाधा दूर करता है उसे साधक ( हेतु ) कहते हैं । आचार्य विद्यानन्दी ने स्पष्ट कहा है कि यदि सहकारी कारण, कार्य की उत्पत्ति में उपादान की असामर्थ्य का खण्डन न कर अकिञ्चित्कर बना रहता है, तो वह सहकारी कारण कैसे कहला सकता है ? इससे प्रमाणित है कि जो तत्त्व उपस्थित बाधाओं को दूर करते हुए कार्य की सिद्धि में सहयोग देता है उसे ही आगम में साधक या हेतु कहा गया है। अतः इसी दृष्टि से सर्वज्ञ ने शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का हेतु कहा है। शुभपरिणाम विषयकषायजन्य दुर्ध्यान का निरोध कर शुद्धोपयोग की भूमिका का निर्माण करता है, इसलिए वह मात्र अबाधकता के कारण नहीं, अपितु बाधा दूरकर शुद्धोपयोग की सिद्धि में सहायक बनने के कारण उसका साधक कहा गया है। यह आचार्यों के अनेक वक्तव्यों से प्रमाणित है। दूसरा प्रश्न यह है कि यदि शुभपरिणाम आत्मविशुद्धि में अबाधक होने मात्र से परम्परया मोक्ष का साधक कहा जाता है, तो सम्यग्दृष्टि का भोग भी आत्मशुद्धि में बाधक नहीं होता है ( इसे उक्त विद्वान स्वयं स्वीकार करते हैं ) , उसे परम्परया “तदसामर्थ्यमखण्डयदकिञ्चित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ?” अष्टसहस्री / पृष्ठ १०५ ( जैनतत्त्वमीमांसा की मीमांसा, पृष्ठ २४७ ) २. (क) “व्यवहारप्रतिक्रमणं तु यदि शुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा तस्यैव निश्चयप्रतिक्रमणस्य साधकभावेन विषयकषायवञ्चनार्थं करोति तदपि परम्परया मोक्षकारणं भवति । " समयसार/तात्पर्यवृत्ति/ गाथा ३०६-३०७ (ख) “कोऽपि सम्यग्दृष्टिर्जीवो निर्विकल्पसमाधेरभावाद् अशक्यानुष्ठानेन विषयकषायवञ्चनार्थं यद्यपि व्रतशीलदानपूजादिशुभकर्मानुष्ठानं करोति **** " वही / तात्पर्यवृत्ति/गाथा २२४-२२७ ३. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा / भाग २ / पृ० ७८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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