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१८२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
में लीन हो जाय, बाद में 'आत्मा है क्या वस्तु' इसका ज्ञान करे, पहले निर्विकल्प समाधि में पहुँच जाय, तत्पश्चात् वहाँ तक पहुँचने के बाह्य उपायों का अवलम्बन करे, पहले वीतरागी हो जाय फिर वीतरागता में बाधक अशुभराग को दूर करने हेतु शुभराग करे | क्या कभी ऐसा होता है कि रोगी पहले नीरोग हो जाय तदनन्तर ओषधि का सेवन करे ? निश्चयधर्म के पूर्व व्यवहारधर्म न मानना ऐसी ही कल्पना
है।
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चर्चित विद्वज्जनों का यह मत समीचीन नहीं है कि निश्चयधर्म के साथ होने वाली पुण्यपरिणतिरूप बाह्यक्रिया को ही आगम में व्यवहारधर्म कहा गया है । ' आगम में तो निश्चयधर्म की सिद्धि में सहायक बनने वाली साधना को व्यवहारधर्म संज्ञा दी गयी है। यह आचार्य जयसेन के निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट है .
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" एकादशांग शब्दागम का अभ्यास ज्ञान का आश्रय होने से व्यवहारनय से ज्ञान है । जीवादि नव पदार्थों का श्रद्धान सम्यक्त्व का निमित्त होने से व्यवहारनय से सम्यक्त्व है । षट्कायिक जीवों की रक्षा चारित्र का आश्रय होने से व्यवहारनय से चारित्र है । ""
पं० टोडरमल जी ने भी स्पष्टरूप से कहा है कि आगमज्ञान, जीवादितत्त्वों का श्रद्धान तथा व्रतादि क्रियाएँ तभी व्यवहाररत्नत्रय कहला सकती हैं जब वे निश्चयरत्नत्रय की सिद्धि में हेतु बनें । '
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निश्चयधर्म के साथ होने वाली पुण्यपरिणतिरूप बाह्यक्रिया को आगम में व्यवहारधर्म इसलिये कहा गया है कि वह शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म की साधक है। * यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि निश्चयधर्म दो प्रकार का होता है लब्धि
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१. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग १ / पृ० १५७
२. “एकादशाङ्गशब्दशास्त्रं ज्ञानस्याश्रयत्वात् कारणत्वाद् व्यवहारेण ज्ञानं भवति । जीवादिनवपदार्थः श्रद्धानविषयः सम्यक्त्वाश्रयत्वान्निमित्तत्वाद्, व्यवहारेण सक्यक्त्वं भवति । षट्जीवनिकायरक्षा चारित्राश्रयत्वाद्हेतुत्वाद् व्यवहारेण चारित्रं भवति । "
समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा २७६
३. " व्यवहार तो उपचार का नाम है, सो उपचार भी तो तब बनता है जब वे ( आगमज्ञानादि ) सत्यभूत निश्चयरत्नत्रय के कारणादिक हों। जिस प्रकार निश्चयरत्नत्रय स जाये उसी प्रकार इन्हें साधे तो व्यवहारपना भी सम्भव हो । परन्तु इसे तो सत्यभूत निश्चयरत्नत्रय की पहचान ही नहीं हुई, तो यह इस प्रकार कैसे साध सकेगा ? ” मोक्षमार्गप्रकाशक/अधिकार ७ / पृ० २५७
४. “शुद्धोपयोगसाधके शुभोपयोगे स्थितानां तपोधनानाम्।”
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प्रवचनसार/ तात्पर्यवृत्ति ३ / ४७
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