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________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ । १७३ दीपक को जलाने के लिये अनुकूल वातावरण की आवश्यकता होती है। खुले स्थान में, जहाँ हवा के तेज झौंके आ रहे हों, वह जल नहीं सकता। निर्वात स्थल में ही जल पाता है। इसी प्रकार जिसका मन विषयकषायों की तेज आँधियों से क्षब्ध है, उसमें वीतरागभाव का दीपक जलना सम्भव नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं, “जैसे गर्भगृह में रखा हुआ दीपक हवा की बाधा से रहित होने के कारण जलता है, वैसे ही रागरूपी पवन की बाधा से रहित होने पर ही ध्यानरूपी दीपक जलता है। पूज्यपाद स्वामी का भी यही मत है। वे कहते हैं - "जिसका मनरूपी जल रागद्वेषादि की लहरों से चंचल नहीं है, उसी को आत्मतत्त्व के दर्शन होते हैं। जिसका चित्त रागद्वेषादि की तरंगों से क्षुब्ध है, उसे आत्मा के दर्शन नहीं हो पाते।"२ इस कथन से स्पष्ट है कि निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयधर्म के लिये विषयकषायों की आँधी से उत्पन्न होने वाली चित्त की अतिचंचलता का समाप्त होना और उसमें अपेक्षाकृत स्थैर्य आना आवश्यक है। यह व्रत, शील, संयमादि व्यवहारधर्म से होता है। आचार्य नेमिचन्द्र कहते हैं - "तप, श्रुत और व्रत का धारक आत्मा ही ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण कर सकता है। अत: ध्यान की प्राप्ति के लिये इन तीनों में निरत होना चाहिये।"३ पं० टोडरमल जी भी मानते हैं कि बाह्यतप शुद्धोपयोग बढ़ाने के लिये किया जाता है। व्रतों से अशुभभावों के निरोध और शुभभावों के अभ्यास द्वारा आत्मा में स्थिरता का संस्कार उत्पन्न होता है। उससे निर्विकल्प समाधियोग्य अवस्था का निर्माण होता है, जिसे प्राप्त कर साधक शुद्धात्मध्यानरूप निश्चयधर्म के प्रयत्न में सफल होता है। अव्रतों के त्याग और व्रतों में परिनिष्ठित होने से ही परमात्मपद कस्मात् स एव परम धर्म इति चेत् ? निरन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरतानां निश्चयरत्नत्रयलक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति।" परमात्मप्रकाश/ब्रह्मदेवटीका २/१११, ४ १. जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहा-विवज्जिओ जलइ ।। तह रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलई ।। भावपाहुड/गाथा १२२ २. रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम् ।। स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः ।। समाधितन्त्र/श्लोक ३५ ३. तवसुदवदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा ।। तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होइ ।। बृहद्र्व्यसंग्रह/गाथा ५७ ४. मोक्षमार्गप्रकाशक/अधिकार ७/पृ० २३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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