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१७० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन समता के क्षेत्र में प्रवेश करता है, त्यों-त्यों सत्ता में पड़े अशुभकर्म शुभरूप में संक्रमण करने लगते हैं। आगे जाकर उदय में आनेवाले ये शुभकर्म भी अपकर्षण द्वारा नीचे खिंचकर समय से पहले उदय में आने लगते हैं। वर्तमान में उदय में आने योग्य अशुभ निषेक उत्कर्षण द्वारा पीछे चले जाते हैं, अर्थात् वर्तमान में उदय में नहीं आते। फलस्वरूप परिणाम कई गुने अधिक विशुद्ध हो जाते हैं। इन वृद्धिंगत विशुद्ध परिणामों के निमित्त से उपर्युक्त संक्रमण, अपकर्षण तथा उत्कर्षण और
अधिक वेग तथा शक्ति के साथ होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि विशुद्धि में अनन्तगुनी वृद्धि होने लगती है।
इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि व्यवहारमोक्षमार्ग विशुद्धता के विकास का शक्तिशाली उपकरण है। विशुद्धता को उत्तरोत्तर विकसित करते हुए वह साधक को निश्चयमोक्षमार्ग के अवलम्बन-योग्य गुणस्थान में पहुँचा देता है। अत: वह निश्चयमोक्षमार्ग का साधक है और निश्चयमोक्षमार्ग का उसका साध्य।
१. कर्मसिद्धान्त/पृ० १४५ Jain Education International
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