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________________ १६८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन अर्थात् अपने फलदानरूप स्वभाव की अभिव्यक्ति उदय कहलाती है अथवा अपना फलदानरूप कार्य कर कर्मस्वरूप का परित्याग उदय है। इस प्रकार कर्म स्वरूप या पररूप से फल दिये बिना अकर्मभाव को प्राप्त नहीं होता।' __ सार यह कि कर्मोदय होने पर जीव के परिणाम उस कर्म की प्रकृति के अनुसार अवश्य हो जाते हैं, अत: चारित्रमोह की क्रोधादि प्रकृतियों का तीव्रोदय हो जाने पर आत्मा में कालुष्य ( क्षोभ, संक्लेश ) उत्पन्न हो ही जायेगा, तब कालुष्याभावरूप क्षमा कैसे सम्भव होगी? अत: निष्कर्ष यही है कि कर्मोदय के निमित्तों को टालकर' या निष्प्रभावी बनाकर ही कालुष्याभावरूप क्षमा, मानाभावरूप मार्दव, माया-अभावरूप आर्जव, कामाभावरूप ब्रह्मचर्य आदि फलित होते हैं। असातावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न दुःख के समय यदि समताभाव धारण किया जाता है, तो आर्तभाव उत्पन्न नहीं होता। उत्पन्न हुए दुःख से द्वेष होना तथा सुख की आकांक्षा करना आर्तभाव कहलाता है। दुःख से घबराने, व्याकुल होने, विलाप आदि करने के रूप में यह द्वेष व्यक्त होता है। इससे नवीन असातावेदनीय का बन्ध होता है। किन्तु समताभाव धारण कर दुःख को धैर्यपूर्वक सहने से नवीन कर्म का बन्ध नहीं होता और उदय में आया हुआ कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार समताभाव से संवरपूर्वक निर्जरा होती है, जो मोक्ष के लिए उपयोगी है। इस विषय में पं० सदासुखदास जी का निम्नलिखित विवेचन पठनीय ___"बहुरि यो मनुष्यशरीर है सो वातपित्तकफादिक-त्रिदोषमय है। असातावेदनीय कर्म के उदयतें, त्रिदोष की घटती-बधतीनैं ज्वर, कांस, स्वास, अतिसार, उदरशूल, शिरशूल, नेत्र का विकार, वातादि पीड़ा होते ( होने पर ) ज्ञानी ऐसा विचार करे हैं – जो ये रोग मेरे उत्पन्न भया है सो याकू असातावेदनीय कर्म को उदय तो अन्तरंग कारण है, अर द्रव्यक्षेत्रकालादिक बहिरंग कारण हैं। सो कर्म के उदयकू उपशम हुआ ( कर्म के उदय का उपशम होने पर ) रोग का नाश होयगा। असाता का प्रबल उदयकू होते बाह्य औषधादिक हूँ रोग मेटने कू समर्थ नाहीं हैं। अर असाताकर्म के हरने कू कोऊ देव-दानव, मंत्र-तंत्र, औषधादिक समर्थ हैं नाहीं। याते अब संक्लेशकू छोड़ि समता ग्रहण करना। अर बाह्य औषधादिक हैं ते असाता १. “ण च कम्म सगरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि, विरोहादो।" कसायपाहुड/जयधवला/पुस्तक ३/भाग २२/प्रकरण ४३०/पृ० २४५ २. यत्र यत्र प्रसूयन्ते तव क्रोधादयो द्विषः । तत्तत्प्रागेव मोक्तव्यं वस्तु तत्सूतिशान्तये ।। ज्ञानार्णव १९/७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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