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१६६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
कालुष्याभावः क्षमा' अर्थात् क्रोध उत्पन्न करनेवाले निमित्तों के होने पर भी कालुष्य ( क्षोभ ) का अभाव होना क्षमा है। आचार्य शुभचन्द्र का कथन है -
प्रत्यनीके समुत्पन्ने यद्धैर्य तद्धि शस्यते ।।
स्यात्सर्वोऽपि जनः स्वस्थ: सत्यशौचक्षमास्पदः ।।२।।
- स्वस्थचित्तवाले तो प्रायः सभी सत्य, शौच, क्षमादि से युक्तं होते हैं, किन्तु शत्रु द्वारा उपसर्ग किये जाने पर धैर्य रखना ही वास्तविक धैर्य है।
ये कथन इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि जिन निमित्तों से क्रोधादिजनक कर्मों का उदय होता है, वे यदि उपस्थित हों, तो भी उनके प्रभाव को नष्ट किया जा सकता है और क्रोधादि के उदय को रोका जा सकता है। निमित्तों के प्रभाव को नष्ट करने की शक्ति आत्मा के क्षमा, समता, धैर्य, अनुकम्पा, आर्जव, मार्दव, विवेक, अहिंसा-निष्ठा, सत्य-निष्ठा, अस्तेय-निष्ठा, ब्रह्मचर्य-निष्ठा, अपरिग्रह-निष्ठा, आदि आदर्श भावों में है, जैसा कि ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है --
शमाम्बुभिः क्रोधशिखी निवार्यतां, नियम्यतां मानमुदारमार्दवैः । इयं च मायाऽऽर्जवत: प्रतिक्षणं, निरीहतां चाश्रय लोभशान्तये ।।
- क्रोधाग्नि को क्षमारूपी जल से शान्त करना चाहिए, मान को मार्दव से दूर करना चाहिए, माया को आर्जव से तथा लोभ को निःस्पृहता से निरस्त करना चाहिए।
_स्वामी कुमार का भी कथन है – “जो साधु समभाव और सन्तोषरूपी जल से तीव्रलोभरूपी मल को धोता है, उसी के शौच धर्म होता है।"
क्षमा, मार्दव, आर्जव, समता, धैर्य आदि भाव ज्ञान से उत्पन्न होते हैं। आत्महितकारी होने से ज्ञानी आत्मा का इनमें अत्यधिक आदरभाव होता है, इनमें उसकी दृढ़ निष्ठा होती है। इन आदरणीय भावों में स्थित रहने का ही विवेकी जीव सदा अभ्यास करता है। ये उसके जीवन के प्रिय लक्ष्य होते हैं। इसलिए जब भी क्रोधादि- कर्मों के उदय के निमित्त उपस्थित होते हैं, वह क्षमादि भावों में स्थिर रहने के लिए दृढ़ हो जाता है और क्रोधादि के निमित्तों को अपने ऊपर हावी नहीं
१. चारित्रसार/चामुण्डराय/५९/२ २. ज्ञानार्णव १९/३८ ३. वही, १९/७२ ४. समसंतोसजलेण जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंजं ।
भोयणगिद्धिवहीणो तस्य सउच्चं हवे विमलं ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा/गाथा ३९७
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