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निश्चय और व्यवहार की परस्परसापेक्षता । १४५
स्वीकार नहीं करते, केवल शुभप्रवृत्तिरूप व्यवहार-मोक्षमार्ग को ही मानते हैं, वे स्वर्गादि के क्लेशों को भोगते हुए संसार में ही भटकते रहते हैं। किन्तु, यदि शुद्धात्मानुभूतिरूप निश्चयमोक्षमार्ग को स्वीकार करते हैं, पर उसके अनुष्ठान की शक्ति न होने पर उसका साधक मानते हुए शुभ का अनुष्ठान करते हैं, तो सरागसम्यग्दृष्टि होकर परम्परया मोक्ष पाते हैं। तथा जो केवल निश्चयमोक्षमार्ग को मानते हैं, किन्तु रागादिविकल्परहित परमसमाधि- रूप शुद्धात्मा को प्राप्त न कर पाने पर भी मनियों के योग्य षड् आवश्यकादि को तथा श्रावकों के योग्य दानपूजादि के अनुष्ठान को हेय समझते हैं, वे उभयभ्रष्ट होकर केवल पाप का बन्ध करते हैं। किन्तु यदि शुद्धात्मानुभूतिरूप निश्चयमोक्षमार्ग को तथा उसके साधकरूप से व्यवहारमोक्षमार्ग को मानते हैं, तो चारित्रमोह के उदय से शक्ति का अभाव होने पर शुभाशुभ प्रवृत्ति करते हुए भी सरागसम्यग्दृष्टिरूप व्यवहारसम्यग्दृष्टि होते हैं और परम्परया मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार सिद्ध है कि परस्पर साध्य-साधकभाव से निश्चय और व्यवहार दोनों का अवलम्बन करने पर जो रागादिविकल्परहित परमसमाधि सम्भव होती है, उसी से मोक्ष प्राप्त होता है।"
इन समस्त आर्षवचनों एवं युक्तियों से निश्चय और व्यवहार नयों की परस्पर सापेक्षता प्रमाणित होती है। सापेक्षताविरोधी मत का निराकरण
किन्तु आधुनिक विद्वानों का एक वर्ग निश्चय और व्यवहार नयों में परस्पर सापेक्षता स्वीकार नहीं करता। उसका मत है कि निश्चयनय सद्भूतव्यवहारनय के विषय को तो स्वीकार करता है, किन्तु असद्भूतव्यवहारनय के विषय का निषेध करता है, क्योंकि उसका विषय वस्तुधर्म न होकर उपचारकथन मात्र है। उक्त विद्वद्वर्ग लिखता है -
. “अब रहा असद्भूतव्यवहारनय सो उसका विषय मात्र उपचार है जो पर को अवलम्बन कर होता है, इसलिये उसकी अपेक्षा उक्त दोनों नयों में सापेक्षता किसी भी अवस्था में नहीं बन सकती। ... समयसार, गाथा ८४ में पहले आत्मा को व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता बतलाया गया है, किन्तु यह १. "अथैवं पूर्वोक्तप्रकारेणास्य प्राभृतस्य शास्त्रस्य वीतरागत्वमेव तात्पर्यं ज्ञातव्यं, तच्च
वीतरागत्वं निश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव भवति मुक्तिसिद्धये न च पुनर्निरपेक्षाभ्यामिति वार्तिकम्। तत: स्थितमेतन्निश्चयव्यवहारपरस्परसाध्यसाधकभावेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिबलेनैव मोक्षं लभते।"
पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १७२ २. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ४३६
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