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________________ उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय । ९९ और मोक्ष की सारी व्यवस्था बेबुनियाद सिद्ध होगी। अत: इसे साधार और युक्तिमत् सिद्ध करने के लिए जिनेन्द्रदेव ने जीव को उपचार से परद्रव्य का ग्राहक और त्याजक कहा है, जिससे यह स्पष्ट हो जाय कि भले ही जीव परमार्थतः परद्रव्य का ग्राहक-त्याजक नहीं है, किन्तु उसके साथ परद्रव्य का संयोग-वियोग स्वयं के ही योग और उपयोग तथा स्वयं के द्वारा अर्जित कर्मों के उदय से होता है। इसलिए परद्रव्य-संयोग-वियोग के अच्छे-बुरे परिणाम का भागी जीव स्वयं होता है। साधर्म्यविशेष का द्योतन जिस वस्तु में कोई धर्म स्वभावत: प्रसिद्ध होता है, वह उस धर्म की अपेक्षा मुख्य वस्तु है तथा जिसमें वह धर्म होता है पर स्वभावत: प्रसिद्ध नहीं होता, उसे जब मुख्य वस्तु का नाम देकर प्रसिद्ध किया जाता है, तब वह वस्तु उस धर्म की अपेक्षा अमुख्य वस्तु कहलाती है। लोक में अमुख्य के लिए मुख्य वस्तु के नाम का प्रयोग कर उसके मुख्यवस्तुसदृश धर्म को द्योतित किया जाता है। जैसे लोक में सिंह क्रौर्यशौर्यादि धर्मों की प्रबलता के लिए स्वभावतः प्रसिद्ध है। अब यदि किसी बालक में भी क्रौर्यशौर्यादि का आधिक्य है, तो उन्हें द्योतित करने के लिए बालक को सिंह शब्द से अभिहित किया जाता है, जिससे साधर्म्य सम्बन्ध के आधार पर बालक के क्रौर्यशौर्यादि धर्मों का आधिक्य अनायास बुद्धिगम्य हो जाता है। यह कथन की व्यंजनात्मक शैली है, जो विवक्षित अर्थ को स्वशब्द से वर्णित न कर परशब्द से व्यंजित करती है। प्रभावोत्पादकता एवं संक्षिप्तता इस शैली की विशेषता है। उपचार का यह लोकप्रसिद्ध प्रयोजन है। आगम में भी इस प्रयोजन से उपचार का प्रयोग किया गया है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। शुद्धोपयोग मुख्यत: मोक्षमार्ग है। वह मोक्ष का हेतु है, अतएव उपादेय है। सम्यक्त्वपूर्वक अथवा सम्यक्त्वोन्मुख शुभोपयोग उसका साधक है, इसलिए वह भी परम्परया मोक्ष का हेतु है, इस कारण आरम्भिक अवस्था में उपादेय भी है। इस प्रकार मोक्षमार्ग एवं उक्त शुभोपयोग में उपादेयतारूप साधर्म्य है। किन्तु यह उपादेयतारूप समान धर्म मोक्षमार्ग में तो स्वभावतः प्रसिद्ध है, परन्तु सम्यक्त्वपूर्वक या सम्यक्त्वोन्मुख शुभोपयोग में स्वभावत: प्रसिद्ध नहीं है। इसलिए शुभोपयोग में उपादेयतारूप धर्म धोतित करने के लिए शुभोपयोग को उपचार से मोक्षमार्ग नाम दिया गया है। परिणामस्वरूप शुभोपयोग के साथ मोक्षमार्ग शब्द सुनकर सम्यक्त्वपूर्वक या सम्यक्त्वोन्मुख शुभोपयोग का उपादेयतारूप धर्म साधर्म्यसम्बन्ध के द्वारा अनायास बुद्धि में उतर जाता है। १. “उपचारस्यापि किञ्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात्।" स्याद्वादमञ्जरी ५/२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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