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________________ उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय / ९७ है कि जीव को उपचारमूलक व्यवहारनय से विषयों का भोक्ता न मानने पर भयंकर अनर्थ हो सकता है। जिस प्रकार जीव को देह से सर्वथा भिन्न बतलाना अनर्थकारी है, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों का सर्वथा अभोक्ता घोषित करना भी अत्यन्त घातक है। केवल निश्चयनय का उपदेश जीव को पाप-मार्ग में घसीटकर ले जा सकता है। कारण यह है कि निश्चयनय के अनुसार तो जीव परद्रव्य का भोग कर ही नहीं सकता, क्योंकि परद्रव्य के साथ तन्मय ( परद्रव्यमय ) नहीं होता। अब यदि इसी उपदेश को जीव ने सर्वथा सत्य मान लिया, तो विषयभोग में आकण्ठ मग्न रहते हुए भी अपने को भोगी या असंयमी नहीं मानेगा, जड़ शरीर को ही विषयभोग का कर्ता मानेगा। इस भ्रम में रहते हुए वह निरन्तर कर्मबन्ध करता रहेगा और कभी मुक्त न हो पायेगा। जीव के द्वारा विषयों का भोग किया जाना यदि सर्वथा असत्य हो, तो संयम और तप की सिद्धि के लिए विषयों के त्याग का उपदेश भी मिथ्या हो जायेगा। जिनेन्द्रदेव ने निश्चयमोक्षमार्ग को साध्य बनाने के लिए व्यवहारमोक्षमार्ग के रूप में विषयों से निवृत्तिरूप इन्द्रिय-संयम, स्वदार-परदारनिवृत्तिरूप ब्रह्मचर्य, आहार एवं रसपरित्यागादिरूप तप, भोग और उपभोग की वस्तुओं का परिसीमनरूप भोगोपभोग-परिमाण अणुव्रत, बाह्यवस्तुपरित्यागरूप बाह्य अपरिग्रह इत्यादि के अनुष्ठान का उपदेश दिया है। इन समस्त मोक्षोपायों में विषयों के परित्याग का उपदेश है। यदि जीव के द्वारा विषयभोग किया जाना सर्वथा असत्य हो तो इन समस्त व्यावहारिक मोक्षोपायों का उपदेश असत्य ठहरेगा। इनके असत्य ठहरने पर निश्चयमोक्षमार्ग एक असाध्य और काल्पनिक वस्तु सिद्ध होगा। किन्तु सर्वज्ञ भगवान् का उपदेश मिथ्या नहीं है, इससे स्पष्ट है कि जीव का कथंचित् विषयों का भोक्ता होना सत्य है। इस सत्य को दर्शाने के लिए ही भगवान् ने जीव को उपचार से 'विषयों का भोक्ता' एवं विषयों को 'भोग्य संज्ञा दी है। संयोग-वियोग-प्रयोजकत्व का द्योतन जीव स्वपरिणाम में ही व्याप्त होता है और स्वपरिणाम से ही निवृत्त होता है, इसलिए स्वपरिणाम का ही मुख्यत: ग्राहक और त्याजक है।' परद्रव्य परिणाम में व्याप्त नहीं होता ( परद्रव्यपरिणाममय नहीं होता ), इसलिए उससे निवृत्त भी नहीं होता। अत: निश्चयनय से परद्रव्य का ग्राहक-त्याजक नहीं है। तथापि संसारी १. “तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयम्।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा २९४ २. “सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि।' प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका २/९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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