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________________ ९२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन सा कथन किस नय से अर्थात् किस अपेक्षा से किया गया है यह समझ लेने पर ही उपचार-कथन के उपयुक्त अर्थ को ग्रहण कर पाना सम्भव है। उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनयात्मक उपदेश के प्रयोजन निश्चयनय ( नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि ) के प्रकरण में प्रसंगवश उन पदार्थों का वर्णन किया गया है, जिन्हें जिनेन्द्रदेव ने नियतस्वलक्षण के अभाव में भी निमित्त और प्रयोजनवश उपचार से जीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, मोक्षमार्ग, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, कर्त्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य आदि संज्ञाएँ दी हैं। यहाँ प्रसंगवश उनका पुन: उल्लेख करते हुए उपचार से दी गयी उन संज्ञाओं के निमित्त और प्रयोजन का विश्लेषण किया जा रहा है और यह दर्शाया जा रहा है कि जिस वस्तु के लिए उपचार से अन्य वस्तु के वाचक शब्द ( नाम ) का प्रयोग किया गया है उस वस्तु के किस वास्तविक धर्म को उस शब्द की लक्षणा और व्यंजना शक्तियों के द्वारा घोतित किया गया है ? इससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय का अवलम्बन कर उपदेश देने के प्रयोजन क्या हैं ? अननुभूत अतीन्द्रिय तत्त्व का द्योतन जो मनुष्य किसी अतीन्द्रिय वस्तु के स्वरूप से सर्वथा अनभिज्ञ है, उसे उसका स्वरूप केवल वर्णन करके नहीं समझाया जा सकता। उसका कोई दृष्टि में आनेवाला स्थूल रूप होता है तो उसके द्वारा समझाना सरल होता है, क्योंकि उसमें प्रस्तुत वस्तु के धर्म झलकते हैं। जैसे जीव एक अतीन्द्रिय तत्त्व है। उसके स्वरूप का प्रतिपादन केवल वर्णन के द्वारा सम्भव नहीं है। किन्तु शरीर के संयोग से उसकी जो मनुष्यादि स्थूल पर्याएँ होती हैं, वे सबके अनुभव में आती हैं। उनमें जीव के धर्म झलकते हैं। अत: उन पर्यायों को जीव का नाम देकर 'मनुष्य जीव है', 'पशुपक्षी जीव हैं' ऐसा बतलाने से जीव के धर्मों की ओर ध्यान आकृष्ट होता है और यह समझ में आता है कि जीव एक ऐसा तत्त्व है जो जानता-समझता है, सुख-दुःख अनुभव करता है और अपने आप विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करता है, वह लकड़ीपत्थर आदि पदार्थों से भिन्न है।' यद्यपि इस प्रकार जीव का स्पष्टरूप से बोध नहीं होता, उसकी पर्याय का ही बोध होता है, तथापि यह जीव के स्वरूप को हृदयंगम कराने का प्राथमिक उपाय है।' पर्याय का बोध कराने के बाद ही यह स्पष्ट किया १. मोक्षमार्गप्रकाशक/सातवाँ अधिकार/पृ० २५२ २. एवमभिगम्म जीवं अण्णेहिं वि पज्जएहिं वहुगेहिं । अभिगच्छदु अज्जीवं णाणंतरिदेहिं लिंगेहिं ।। पञ्चास्तिकाय/गाथा १२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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