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८२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
वरण का क्षयोपशम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का हेतु है जो मोक्ष में सहायक हैं। देशनालब्धि ( गुरु का उपदेश ) सम्यग्दर्शन की साधक है। इन्द्रियाँ, प्रकाश, उपाध्याय आदि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के साधक हैं।
बाह्य परिग्रह का त्याग मूर्छा-निरोध का साधक है। आहार एवं रस आदि का त्याग तप का साधक है। इन्द्रिय-विषयों का त्याग संयम का साधक है। परप्राण-व्यपरोपण, अदत्तादान, अप्रशस्तवचन एवं स्वस्त्री-परस्त्री का त्याग अहिंसादि व्रतों का साधक है। पंचपरमेष्ठी का चिन्तन आत्म-ध्यान का साधक है। शास्त्रों का अनुशीलन मिथ्यात्व और अज्ञान के निवारण का साधक है। देवशास्त्र-गुरु की भक्ति पापास्रव के निरोध की साधक है।
मोक्ष में सहायक इन भिन्न साधनों को जिनेन्द्रदेव ने व्यवहारनय से मोक्षमार्ग नाम दिया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि प्राथमिक साधक व्यवहारनय द्वारा प्रतिपादित भिन्नसाध्यसाधनभाव का अवलम्बनकर सुखपूर्वक मोक्षमार्ग में अवतरित हो जाते हैं -
"व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थं प्राथमिकाः।"
परद्रव्य के साथ आत्मा के इस साध्यसाधक-सम्बन्ध का ज्ञान बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी दृष्टि ( परद्रव्यसम्बन्धमूलक असद्भूतव्यवहारनय ) से अवलोकन करने पर होता है।
परद्रव्य के साथ आधाराधेयसम्बन्ध का निश्चय
लोकाकाश आधार है और जीव आधेय। कर्मभूमि और भोगभूमि आधार हैं, जीव आधेय। स्वर्ग, नरक और मध्यलोक आधार हैं, जीव आधेय। जीव आधार है और कर्म, नोकर्म ( शरीर ) आधेय। इसी कारण जीव में स्थित शरीर के वर्ण को देखकर 'यह जीव का वर्ण है' ऐसा जिनेन्द्रदेव ने उपचार से कहा है। इस प्रकार जीव और परद्रव्यों में आधार-आधेय सम्बन्ध है जो बाह्यसम्बन्धावलम्बिनी दृष्टि से देखने पर ही अनुभव में आता है। मौलिक भेद का आश्रय लेने वाली निश्चयदृष्टि तो इसकी प्रतिषेधक है।
इस प्रकार के और भी अनेक बाह्य सम्बन्ध परद्रव्यों के साथ जीव के
१ पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका, गाथा १७२ २. "तथा जीवे बन्धपर्यायेणावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तात्स्थ्यात् तदुपचारेण जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽर्हदेवानां प्रज्ञापनेऽपि ... ..।'
समयसार/आत्मख्याति/गाथा ५८-६०
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