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प्रकाशकीय
सामान्यतया जैन धर्म वैराग्य प्रधान रहा है । अतः उसका अधिकांश साहित्य वैराग्यपरक एवं उपदेशमूलक है और इसी आधार पर प्रायः यह आक्षेप भी लगाया जाता है कि जैन परम्परा में रस-प्रधान साहित्य का अभाव है। किन्तु यदि हम वस्तुतः जैन आचार्यों की कृतियों का विश्लेषण करें तो विद्वत् जगत का यह आक्षेप निराधार सिद्ध हो जायेगा । जैन आचार्यों ने साहित्य की सभी विधाओं का संस्पर्श किया है। दुर्भाग्य केवल यही है कि उन जैन आचार्यों की कृतियाँ विद्वत् जगत के सम्मुख नहीं आ सकी । कालिदास के 'मेघदूत' का नाम विद्वत् जगत में सर्व विश्रुत है किन्तु उसी तरह के 'जैनमेघदूत', 'शीलदूत', 'नेमिदूत' आदि के सन्दर्भ में विद्वत् जगत अपरिचित ही है । ये कृतियाँ विद्वत् जगत के सम्मुख आयें-इसी को दृष्टि में रखकर पार्श्वनाथ विद्याश्रम ने इनके शोधात्मक अध्ययन और प्रकाशन की व्यवस्था की है । इस क्रम में 'जैनमेघदूत' नामक यह कृति विद्वत् जगत के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
इस कृति का शोधात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन डॉ० रविशंकर मिश्र ने विद्याश्रम के शोध-छात्र के रूप में किया है। उन्होंने अपने इस अध्ययन में 'जैनमेघदूत' की कालिदास के 'मेघदूत' से तुलना की है। इस समस्त शोध को हमने ग्रन्थ की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया है। यद्यपि यह मात्र भूमिका नहीं है अपितु अपने आप में एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है । डॉ० रविशंकर मिश्र ने इसमें न केवल 'जैनमेघदूत' के विभिन्न पक्षों पर गम्भीर रूप से विचार किया है अपितु कालिदास के मेघदूत के साथ उन सभी पक्षों की तुलना भी की है। साथ ही उन्होंने दुतकाव्य की परम्परा और जैन दुतकाव्यों का संक्षिप्त विवरण भी प्रस्तुत किया है । आचार्य मेरुतुंग की यह कृति टीका सहित श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर से प्रकाशित हुई थी और वर्तमान में अनुपलब्ध है। अतः हमने यह आवश्यक समझा कि मूलग्रन्थ के साथ-साथ उसका हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित किया जाय। आत्मानन्द सभा से जो संस्करण प्रकाशित हुआ था उसमें एक टीका भी प्रकाशित हुई थी किन्तु इस अवधि में हमें गणिवर्य कलाप्रभसूरि जी से यह ज्ञात हुआ कि इस पर महीमेरुगणिकृत बालावबोध वृत्ति भी उपलब्ध है जो सम्प्रति अप्रकाशित है। उनके निर्देशानुसार हमने उक्त बालावबोध वृत्ति की हस्तप्रत को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। हमें उसकी हस्तप्रत लालभाई दलपतभाई
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